Saturday 21 January 2012

  • जीवन अविकल कर्म है, न बुझने वाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं।
    -भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, पृ0 24)

  • उदारता और स्वाधीनता मिल कर ही जीवनतत्व है।
    -अमृतलाल नागर (मानस का हंस, पृ0 367)

  • सत्य, आस्था और लगन जीवन-सिद्धि के मूल हैं।
    -अमृतलाल नागर (अमृत और विष, पृ0 437)

  • गंगा तुमरी साँच बड़ाई।
    एक सगर-सुत-हित जग आई तारयौ॥
    नाम लेत जल पिअत एक तुम तारत कुल अकुलाई।
    'हरीचन्द्र' याही तें तो सिव राखी सीस चढ़ाई॥
    -भारतेन्दु हरिश्चंद्र (कृष्ण-चरित्र, 37)

  • गंगा की पवित्रता में कोई विश्वास नहीं करने जाता। गंगा के निकट पहुँच जाने पर अनायास, वह विश्वास पता नहीं कहाँ से आ जाता है।
    -लक्ष्मीनारायण मिश्र (गरुड़ध्वज, पृ0 79)

  • मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट काम के लिए सारे पक्षों का एक हो जाना ज़िन्दा राष्ट्र का लक्षण है ।
    - लोकमान्य तिलक

  • चापलूसी करके स्वर्ग प्राप्त करने से अच्छा है स्वाभिमान के साथ नर्क में रहना।
    - चौधरी दिगम्बर सिंह

  • राष्ट्रीयता भी सत्य है और मानव जाति की एकता भी सत्य है । इन दोनों सत्यों के सामंजस्य में ही मानव जाति का कल्याण है ।
    - अरविन्द (कर्मयोगी)

  • अन्तराष्ट्रीयता तभी पनप सकती है जब राष्ट्रीयता का सुदृढ़ आधार हो ।
    - श्यामाप्रसाद मुखर्जी

  • लघुता में प्रभुता बसे,
    प्रभुता लघुता भोन ।
    दूब धरे सिर वानबा,
    ताल खडाऊ कोन
    लघुता में प्रभुता निवास करती है और प्रभुता, लघुता का भवन है । दूब लघु है तो उसे विनायक के मस्तक पर चढ़ाते हैं और ताड़ के बड़े वृक्ष की कोई खड़ाऊं बनाकर भी नहीं पहनता ।
    - दयाराम (दयाराम सतसई, 404)

  • तिलक-गीता का पूर्वार्द्ध है ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, और उसका उत्तरार्द्ध है ‘स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध कर्तव्य है’ । स्वदेशी को लोकमान्य बहिष्कार से भी ऊँचा स्थान देते थे।
    - महात्मा गाँधी

  • न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविस्वसेत् ।
    विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति ॥
    जो विश्वासपात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वासपात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है ।
    - वेदव्यास (महाभारत, शांति पर्व, 138 । 144 - 45)

  • ईमानदारी और बुद्धिमानी के साथ किया हुआ काम कभी व्यर्थ नहीं जाता ।
    - हज़ारीप्रसाद द्विवेदी

  • पृथ्वी में कुआं जितना ही गहरा खुदेगा, उतना ही अधिक जल निकलेगा । वैसे ही मानव की जितनी अधिक शिक्षा होगी, उतनी ही तीव्र बुद्धि बनेगी ।
    - तिरुवल्लुवर (तिरुक्कुरल, 396)

  • शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्त्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।
    - स्वामी विवेकानंद (सिंगारावेलु मुदालियार को पत्र में, 3 मार्च 1894)

  • शब्द खतरनाक वस्तु हैं । सर्वाधिक खतरे की बात तो यह है कि वे हमसे यह कल्पना करा लेते हैं कि हम बातों को समझते हैं जबकि वास्तव में हम नहीं समझते ।
    - चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

  • शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर।
    सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बिखेरो।
    - अथर्ववेद (3।24।5)

  • दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
    देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकंस्मृतम्॥
    दान देना अपना कर्त्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करने वाले के लिए दिया जाता है, वह सात्त्विक दान है।
    - वेदव्यास (महाभारत, भीष्मपर्व 41।20 अथवा गीता, 17।20)

  • आदित्तस्मिं अगारस्मि यं नीहरति भाजनं। तं तस्स होति अत्थायनो च यं तत्थ डह्यति॥
    एवं आदोपितो लोको जराय मरणेन च। नीहरेथ एच दानेन दिन्नं हि होति सुनीहतं॥
जलते हुए घर में से आदमी जिस वस्तु को निकाल लेता है, वही उसके काम की होती है, न कि वह जो वहाँ जल जाती है। इसी प्रकार यह संसार जरा और मरण से जल रहा है। इसमें से दान देकर निकाल लो। जो दिया जाता है वही सुरक्षित होता है।
- [पालि] जातक(आदित्त जातक)

  • प्रत्येक भारतवासी का यह भी कर्त्तव्य है कि वह ऐसा न समझे कि अपने और अपने परिवार के खाने-पहनने भर के लिए कमा लिया तो सब कुछ कर लिया। उसे अपने समाज के कल्याण के लिए दिल खोलकर दान देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
    - महात्मा गाँधी (इंडियन ओपिनियन, दि:नांक अगस्त 1903)

  • Charity is a virtue of the heart, and not of the hands.
    दानशीलता ह्रदय का गुण है, हाथों का नहीं।
    - एडीसन (दी गार्डियन, ॠ॰ 166)

  • Give accordings to your means, or God will make your means according to your giving.
अपने साधनों के अनुरूप दान करो अन्यथा ईश्वर तुम्हारे दान के अनुरूप तुम्हारे साधन बना देगा।
- जॉन हाल

  • नकसन पनही* बतकट जोय।* जो पहिलौठी बिटिया होय।*
पातरि* कृषि बौहरा भाय।* घाघ कहैं दुख कहाँ समाय॥
- घाघ(घाघ की कहावतें)

  • शायद दुनिया-भर के लोगों की कमज़ोरी का पता लगाने की अपेक्षा अपनी कमज़ोरी का पता लगा लेना ज़्यादा विश्वसनीय होता है।
    - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी(कल्पलता, पृष्ठ 34)

  • सख्यं कारणनिर्व्यपेक्षमिनताहंकारहीना सतीभावो वीतजनापवाद उचितोक्तित्वं समस्तप्रियम्।
    विद्वत्ता विभवान्विता तरुणिमा पारिप्लत्वोज्झितो राजस्वं विकलंकमत्र चरमे काले किलेत्यन्यथा॥
    कारण-रहित मित्रता, अहंकार-रहित स्वामित्व, लोकापवाद-रहित सतीत्व, सब को प्रिय उचित कथनशीलता, वैभव-युक्त विद्वता, चंचलता-रहित यौवन तथा अंत तक कलंक-रहित राजस्व संसार में दुर्लभ है।
    - कल्हण (राजतरंगिणी, 8।161)

  • पृथिवीं धर्मणा धृतां शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा।
    धर्म के द्वारा धारण की गई इस मातृभूमि की सेवा हम सदैव करते रहें।
    - अथर्ववेद (12।1।17)

  • अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
    जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
    हे लक्ष्मण! मुझे स्वर्णमयी लंका भी अच्छी नहीं लगती; माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती हैं।
    - अज्ञात

  • अपने देश या अपने शासक के दोषों के प्रति सहानुभूति रखना या उन्हें छिपाना देशभक्ति के नाम को लजाना है, इसके विपरित देश के दोषों का विरोध करना सच्ची देशभक्ति है।
    - महात्मा गाँधी (सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 41, पृष्ठ 590)

  • देश की सेवा करने में जो मिठास है, वह और किसी चीज़ में नहीं है।
    - सरदार पटेल (सरदार पटेल के भाषण, पृष्ठ 259)

ये देश मेगिना येंदु कालिडिना
ये पीठ मेकिकना, एवरेमनिना
योगडरा नी तल्लि भूमि भारतिनि
योगडरा नी जाति निंडु गौरवमु।
जिस किसी भी देश में जाये, जहाँ कहीं भी आदर पावे, लोग जो कुछ भी कहें, तू अपनी भारत भूमि का यशोगान गाकर अपनी जाति का मान अखण्ड रख।
- रायप्रोलु सुब्बाराव
  • पश्चिम में आने से पहले भारत को मैं प्यार ही करता था, अब तो भारत की धूलि ही मेरे लिए पवित्र है। भारत की हवा मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए तीर्थ है।
    - विवेकानन्द (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 5, पृष्ठ 203)

  • मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष, हूँ। भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है। हिमाचल मेरा शिर है। मेरे बालों में श्री गंगा जी बहती हैं। मेरे शिर से सिन्धु और ब्रह्मपुत्र निकलते हैं। विन्ध्याचल मेरी कमर के गिर्द कमरबन्द है। कुरुमण्डल मेरी दाहिनी और मलाबार मेरी बाईं जंघा (टाँगें) है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है? यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परन्तु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं मान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि यह भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ। स्वदेशभक्ति का यह अति उच्च अनुभव है, और यही 'व्यावहारिक वेदान्त' है।
    - रामतीर्थ (स्वामी रामतीर्थ ग्रन्थावली, भाग 7, पृष्ठ 126)

  • मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए कोई स्मारक बनवाया जाये, या मेरी प्रतिमा खड़ी की जाये। मेरी कामना केवल यही है कि लोग देश से प्रेम करते रहें और आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए प्राण भी न्यौछावर कर दें।
    - गोपालकृष्ण गोखले ('भारत सेवक समाज' के सदस्यों से अन्तिम शब्द)

Chunavi Chakllas

कलमाडी  नौ माह के बाद हुए आजाद/
मगर यही अफ़सोस हें जनता रखे न याद//
जनता रखे न याद सज़ा ये पाते जितनी/
हो जाती हे ऊची इनकी गरदन उतनी//
जनवासा हे जेल इन्हें ये बडे कबाडी/
अभी पडे हें धके छुपे बीसो कलमाडी//

Chunavi Chakllas

राहुल बाबा बोलते उमा बाहरी नाम/
मध्य देश से   आ  घुसीं यू पी  में क्या काम //
यू पी  में क्या काम यहाँ  ये क्यों  कर आई /  
इटली से   सोनिया यहाँ किसने मगवायी//
दस जनपथ हे काग्रेस का काशी काबा/
सोच समझ कर बोल न पाते राहुल बाबा// 
 

Sunday 15 January 2012

Chunavi Chakllas

माया और मुलायम जैसे नाग सांप की जोड़ी है /
ये अरबों संपत्ति बनायें वो भी इनको थोड़ी है //
अपने दल के ये सुप्रीमो सिर न उठाता है कोई /
जो थोडा करवट भी ले ले , बच ना पाता है कोई //
किस को भी चुन लो ये केवल अपनी पूंछ बुझाएंगे /
पहले जनता से मांगें , जनता का माल उड़ायेंगे //
कांग्रेस भी रही निकम्मी बीजेपी भी टालमटोल /
चाट पोंछ खा गए राज्य को किया प्रान्त का डिब्बा गोल //
त्यागपत्र दिलवा  माया जनता को खूब लुभाय  रहीं  /
कर सुई का दान बड़े  लंगर को सहज पचाय रहीं//
लेकिन जनता जाग गयी अब चक्कर   में  नहीं  आएगी /
लाख दंड पेलो पर सबको आईना दिखलाएगी // 

Chunavi Chakllas

रामदेव पर स्याही फिकती राहुल पर फूलों के हार/
सच बोले उसका मुंह काला कैसा है ये भ्रष्टाचार //
एक छोड़ दस दल बदलो तुम फिर भी दूध नहाये हो /
बीस बार मुहँ काला कर के लौट लौट "घर " आये हो //
राजनीति खुद  में कालिख है कौन इससे बच पाया है /
जो सच्चा आया भी तो उसने अपमान कराया है //
स्याही फेंको गोबर फेंको सच न कभी छुप पाया है /
जिसने सच को झुठलाया उसने ही जूता खाया है //

Kabaddi ka khel

कबड्डी
कबड्डी एक सामूहिक खेल है, जो प्रमुख रूप से भारत में खेला जाता है। कबड्डी नाम का प्रयोग प्राय: उत्तर भारत में किया जाता है, इस खेल को दक्षिण भारत में चेडुगुडु और पूरब में हु तू तू के नाम से भी जानते हैं। भारत के साथ पड़ोसी देशों में भी कबड्डी बड़े पैमाने पर खेली जाती है। विभिन्न क्षेत्रों में इसके अलग-अलग नाम हैं। पश्चिमी भारत में हु-तू-तू, पूर्वी भारत और बांग्लादेश में हा-दो -दो; दक्षिण भारत में चेडु-गुडु; श्रीलंका में गुड्डु और थाईलैंण्ड में थीचुब। यद्यपि यह खेल थोड़ी भिन्नता के साथ खेला जाता है, पर शत्रु क्षेत्र में आक्रमण का मूलतंत्र सभी में समान रहता है। इस खेल में एक खिलाड़ी विरोधी दल के पाले (क्षेत्र) में 'कबड्डी,कबड्डी' या 'हु-तू-तू' दोहराया जाता है, विरोधी दल के खिलाड़ियों को छूने के प्रयास में तेज़ी से घूमता है और वापस अपने पाले (क्षेत्र) में आ जाता है; यह सभी एक ही सांस में और विरोधियों की गिरफ़्त से बचकर होना चाहिए।
इतिहास
यद्यपि कोई औपचारिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है, पर इस खेल का उद्भव प्रागैतिहासिक काल से माना जा सकता है, जब मनुष्य में आत्मरक्षा या शिकार के लिए प्रतिवर्ती क्रियाएँ विकसित हुईं। इस बात का उल्लेख एक ताम्रपत्र में है कि भगवान कृष्ण और उनके साथियों द्वारा कबड्डी से मिलता-जुलता एक खेल खेला जाता था। महाभारत में कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान एक रोचक प्रसंग में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु, को शत्रु के चक्रव्यूह को भेदने के लिए कहा गया। प्रत्येक चक्र कौरवों सात युद्ध वीरों से सुसज्जित था। यद्यपि अभिमन्यु व्यूह को भेदने में सफल हो गए, मगर वह बाहर आने में असमर्थ रहे। ऋषि-मुनियों द्वारा चलाए जा रहे गुरुकुलों में भी कबड्डी खेली जाती थी, जहाँ शिष्य शारीरिक व्यायाम के लिए इसे खेलते थे। [1]
पहली प्रतियोगिता
20वीं सदी के पहले दो दशकों में महाराष्ट्र के विभिन्न सामाजिक संगठनों ने कबड्डी के खेल को औपचारिकता व लोकप्रियता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1918 में कुछ सामान्य नियम बनाए गए और कुछ प्रतियोगिताएँ आयोजित की गईं। लेकिन कबड्डी के नियमों के औपचारिक गठन और प्रकाशन का ऐतिहासिक क़दम सन 1923 में भारतीय ओलिंपिक संघ के तत्वावधान में उठाया गया। इस स्वदेशी खेल का पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शन एक खेल संगठन, हनुमान व्यायाम प्रसारक मंडल ने 1936 के बर्लिन ओलिंपिक में किया।
कबड्डी मैच का एक दृश्य
लगभग 1938 में पहली प्रतियोगिता कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के टाला बगीचे में आयोजित की गई। 1950 में भारतीय कबड्डी महासंघ की स्थापना हुई। पुरुषों के लिए पहली राष्ट्रीय प्रतियोगिता 1952 में मद्रास (वर्तमान चेन्नई) में आयोजित की गई, जबकि महिलाओं की पहली राष्ट्रीय प्रतियोगिता 1955 में कलकत्ता में हुई। 1972 ग़ैर व्यावसायिक कबड्डी संघ (एमेच्योर कबड्डी फ़ेडरेशन) की स्थापना हुई और प्रतिप्रयोगिताएँ शुरू की गईं। 1974 में भारतीय दल ने खेल को लोकप्रिय बनाने के लिए बांग्लादेश का दौरा किया। 1978 में बांग्लादेश के दल ने भारत के विरुद्ध टेस्ट श्रृंखला खेलने के लिए यहाँ का दौरा किया। दक्षिण एशिया क्षेत्र में इस खेल के विकास का महत्त्वपूर्ण मोड़ था, एशियाई ग़ैर व्यावसायिक कबड्डी संघ (एशियन एमेच्योर कबड्डी फ़ेडरेशन) की स्थापना। पहली एशियाई कबड्डी प्रतियोगिता 1980 में कलकत्ता में आयोजित की गई। 1982 में नई दिल्ली में हुए एशियाई खेलों में कबड्डी का प्रदर्शन किया गया। 1985 से इसे दक्षिण एशियाई संघीय खेलों में शामिल कर लिया गया। 1990 में बीजिंग में हुए एशियाई खेलों में कबड्डी ने एक प्रतियोगी खेल के रूप में पदार्पण किया।
खेल का मैदान
खेल का मैदान समतल तथा नर्म होता है। यह मिट्टी, खाद या बुरादे का होता है। पुरुषों के लिए मैदान का आकार 121/2 मी X 10 मी होता है। केन्द्रीय रेखा इसे दो समान भागों में बाँटती है। प्रत्येक भाग 10 मी X 61/4 मी. होता है। स्त्रियों तथा जूनियर्स के लिए मैदान का नाप 11 मी. X 8 मी. होता है। मैदान के दोनों ओर एक मीटर चौड़ी पट्टी होगी जिसे लॉबी कहते हैं। प्रत्येक क्षेत्र में केन्द्रीय रेखा से तीन मीटर दूर उसके समानांतर मैदान की पूरी चौड़ाई के बराबर रेखाएं खीची जाती है। इन रेखाओं को बॉक रेखाएं कहते हैं। केन्द्रीय रेखा स्पष्ट रुप से अंकित की जानी चाहिए। केन्द्रीय रेखा तथा अन्य रेखाओं की अधिकतम चौड़ाई 5 सैंटीमीटर या 2" होनी चाहिए। साइड रेखा और अंत रेखा के बाहर की ओर 4 मीटर स्थान खुला छोड़ना आवश्यक है। बैठने का ब्लॉक अंत रेखा से दो मीटर दूर होता है। पुरुषों के लिए बैठने का ब्लॉक अंत रेखा से जूनियर्स के लिए 2 मीटर X 6 मीटर होता है।
सामान तथा पोशाक
खिलाड़ी की पोशाक, बनियान और निक्कर होती है। इसके नीचे जांघिया या लंगोट होता है। खिलाड़ी कपड़े के जूते तथा जुराब पहन सकते है तथा बनियान भी पहन सकते हैं। बनियान के आगे पीछे नम्बर लिखा हुआ होना चाहिए। बैल्ट सेफ्टी पिन और अंगूठियों की आज्ञा नहीं है तथा नाख़ून कटे होने चाहिए।
खेल के नियम
स्मरणीय तथ्य पुरुषों के लिए कबड्डी के मैदान का आकार     121/2 मी. X 10 मी.
महिलाओं तथा जूनियर्स के लिए मैदान का आकार     11 मी. X 8 मी.
छोटे लड़कों और लड़कियों के लिए मैदान का आकार     91/2 मी. X 61/2 मी.
प्रकोष्ठ की चौड़ाई     1 मी.
बाक रेखाओं से केन्द्रीय रेखा की दूरी     31/4 मी.
केन्द्रीय रेखा तथा अन्य रेखाओं की चौड़ाई     5 सैंटीमीटर
पुरुषों के लिए बैठने के ब्लॉक का आकार     1 मी. X 8 मी.
महिलाओं व जूनियर्स के लिए बैठने के ब्लॉक का आकार     1 मी. X 6 मी.
प्रत्येक टीम में खिलाड़ियों की संख्या (बाहर)     12 (बारह)
मैच में भाग लेने वाले खिलाड़ियों की संख्या     7 (सात)
पुरुषों के लिए मैच का समय     20-20 मिनट की दो पारी
स्त्रियों और जूनियर्स के लिए मैच का समय     15-15 मिनट की दो पारी
मध्यांतर का समय     5 मिनट
टॉस जीतने वाली टीम या तो अपनी पसन्द का क्षेत्र ले सकती है या पहले आक्रमण करने का अवसर प्राप्त कर सकती है। मध्यान्तर के पश्चात क्षेत्र या कोर्ट बदल लिए जाते हैं।
खेल के दौरान मैदान से बाहर जाने वाला खिलाड़ी आउट हो जाएगा।
 खिलाड़ी आऊट हो जाता है-
यदि किसी खिलाड़ी के शरीर का कोई भी भाग मैदान की सीमा के बाहर के भाग को स्पर्श कर ले।
संघर्ष करते समय खिलाड़ी आउट नहीं होगा यदि उसके शरीर का कोई अंग या तो सीधे मैदान को छुए या उस खिलाड़ी को छुए जो सीमा के अन्दर है ।
संघर्ष आरम्भ होने पर लॉबी का क्षेत्र भी मैदान में सम्मिलित माना जाता है। संघर्ष की समाप्ति पर वे खिलाड़ी जो संघर्ष में सम्मिलित थे, लॉबी से होते हुए अपने क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं।
आक्रमण खिलाड़ी 'कबड्डी' शब्द का लगातार उच्चारण करता रहेगा। यदि वह ऐसा नहीं करता तो अम्पायर उसे अपने क्षेत्र में वापिस जाने का और विपक्षी खिलाड़ी को आक्रमण करने का आदेश दे सकता है। इस स्थिति में उस खिलाड़ी का पीछा नहीं किया जाएगा।
आक्रमण खिलाड़ी 'कबड्डी' शब्द बोलते हुए विपक्षी कोर्ट में प्रविष्ट होना चाहिए। यदि वह विपक्षी के कोर्ट में प्रविष्ट होने के पश्चात कबड्डी शब्द का उच्चारण करता है तो अम्पायर उसे वापिस भेज देगा और विपक्षी खिलाड़ी को आक्रमण का अवसर दिया जाएगा। इस स्थिति में आक्रामक खिलाड़ी का पीछा नहीं किया जाएगा।
खेल के अंत तक प्रत्येक पक्ष अपने आक्रामक बारी-बारी से भेजता रहेगा।
यदि विपक्षियों द्वारा पकड़ा हुआ कोई आक्रामक उन से बच कर अपने कोर्ट में सुरक्षित पहुँच जाता है तो उसका पीछा नहीं किया जाएगा।
एक बारी में केवल एक ही आक्रामक विपक्षी कोर्ट में जाएगा। यदि एक साथ एक से अधिक आक्रामक विपक्षी कोर्ट में जाते है तो निर्णायक या अम्पायर उन्हें वापस जाने का आदेश देगा और उनकी बारी समाप्त कर दी जाएगी। इन आक्रामकों द्वारा छुए गए विपक्षी आउट माने जाएंगे। विपक्षी इन आक्रामकों का पीछा नहीं करेंगे।
जो भी पक्ष एक समय में एक से अधिक खिलाड़ी विपक्षी कोर्ट में भेजता है उसे चेतावनी दी जाएगी। यदि चेतावनी देने के पश्चात भी वह ऐसा करता है तो पहले आक्रामक के अतिरिक्त शेष सभी को आउट किया जाएगा।
यदि कोई आक्रामक विपक्षी कोर्ट में सांस तोड़ देता है तो उसे आउट माना जाएगा।
किसी आक्रामक के पकड़े जाने पर विपक्षी खिलाड़ी जानबूझ कर उसका मुँह बन्द करके सांस रोकने या चोट लगने वाले ढंग से पकड़ने कैंची या अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं करेंगे। ऐसा किए जाने पर अम्पायर उस आक्रामक को अपने क्षेत्र में सुरक्षित लौटा हुआ घोषित करेगा।
कोई भी आक्रामक या विपक्षी एक दूसरे को सीमा से बाहर धक्का नहीं मारेगा। जो पहले धक्का देगा उसे आउट घोषित किया जाएगा। यदि धक्का मार कर आक्रामक को सीमा से बाहर निकाला जाता है तो उसे अपने कोर्ट में सुरक्षित लौटा हुआ घोषित किया जाएगा।
जब तक आक्रामक विपक्षी कोर्ट में रहेगा तब तक कोई भी विपक्षी खिलाड़ी केन्द्रीय रेखा से पार आक्रामक के अंग को शरीर के किसी भाग से नहीं छूएगा। यदि वह ऐसा करता है तो उसे आउट घोषित किया जाएगा।
यदि कोई आक्रामक बिना अपनी बारी के जाता है तो अम्पायर उसे वापिस लौटने का आदेश देगा। यदि बार-बार ऐसा करता है तो उसके पक्ष को एक बार चेतावनी देने के पश्चात विपक्षियों को एक अंक दे दिया जाएगा। नये नियमों के अनुसार बाहर से पकड़ कर पानी पीना फाऊल नहीं है।
जब एक दल विपक्षी दल के सभी खिलाड़ियों को निष्कासित करने में सफल हो जाए तो उन्हें 'लोना' मिलता है। 'लोना' के दो अंक अतिरिक्त होते हैं। उसके पश्चात खेल पुन: शुरू होगा।
    आक्रामक को यदि अपने पक्ष के खिलाड़ी द्वारा विपक्षी के प्रति चेतावनी दी जाती है तो उसके विरुद्ध 1 अंक दिया जाएगा।
    किसी भी आक्रामक या विपक्षी को कमर या हाथ पांव के अतिरिक्त शरीर के किसी भाग से नहीं पकड़ सकता। इस नियम का उल्लंघन करने वाला आउट घोषित किया जाएगा।
    खेल के दौरान यदि एक या दो खिलाड़ी रह जाएं तथा विरोधी दल का कप्तान अपनी टीम को खेल में लाने के लिए उन्हें आऊट घोषित कर दे तो विपक्षियों को घोषणा से पहले शेष खिलाड़ियों की संख्या के बराबर अंकों के अतिरिक्त 'लोना' के दो अंक और प्राप्त होंगे।
    विपक्षी के आउट होने पर आउट खिलाड़ी उसी क्रम में जीवित किया जाएगा जिसमें वह आउट हुआ है।
    खिलाड़ियों के साथ भी मैच आरम्भ किया जा सकता है परंतु जब 5 खिलाड़ी आउट हो जाएं तो हम पूरा 'लोना' अर्थात 5+2 (खिलाड़ियों 1-5 अंक और 2 अंक लोने के) अंक देते हैं। जब खिलाड़ी आ जाएं तो वे टीम में डाले जा सकते हैं।

    प्रत्येक पक्ष में खिलाड़ियों की संख्या बारह होगी। एक साथ मैदान में सात खिलाड़ी उतरेंगे।
    खेल की अवधि पुरुषों के लिए 20 मिनट तथा स्त्रियों व जूनियरों के लिए 15 मिनट की दो अवधियाँ होगी। इन दोनों अवधियों के बीच 5 मिनट का मध्यांतर होगा।
    प्रत्येक आउट होने वाले विपक्षी के लिए दूसरे पक्ष को एक अंक मिलेगा। 'लोना' प्राप्त करने वाले पक्ष को दो अंक मिलेंगें।
    खेल की समाप्ति पर सबसे अधिक अंक प्राप्त करने वाले पक्ष को विजयी घोषित किया जाता है।
    (i) ग्रन्थि होने पर पाँच-पाँच मिनट की दो अतिरिक्त अवधियों के लिए खेल होगा। इन अवधियों में खेल दूसरे अर्द्धक के अंत वाले खिलाड़ी जारी रखेंगे।

(ii) यदि 50 मिनट के खेल के पश्चात टाई हो तो वह टीम जीतेगी जिसने पहले अंक प्राप्त किया हो।

    लोना

जब एक टीम के सारे खिलाड़ी आउट हो जाएं तो विरोधी टीम को 2 अंक अधिक मिलते हैं। उसको हम लोना कहते हैं। प्रतियोगिता निम्नलिखित दो प्रकार के होती हैं।

    नाक आउट- इसमें जो टीम हार जाती है, वह टीम प्रतियोगिता से बाहर हो जाती है।
    लीग- इसमें यदि कोई टीम हार जाती है, वह टीम बाहर नहीं होगी। उसे अपने ग्रुप के सारे मैच खेलने पड़ते हैं। जो टीम मैच जीतती है उसे दो अंक दिये जाते हैं। मैच बराबर होने पर दोनों टीमों को एक एक अंक दिया जाएगा। हारने वाली टीम को शून्य अंक मिलेगा। यदि दोनों टीमों का मैच बराबर रहता है और अतिरिक्त समय भी दिया जाता है या जिस टीम ने खेल आरम्भ होने से पहले अंक लिया होगा वह विजेता घोषित की जाएगी। यदि दोनों टीमों का स्कोर शून्य है तो जिस टीम ने टॉस जीता हो वह विजेता घोषित की जाएगी।

    किसी कारणवश मैच न होने की दशा में मैच पुन: खेला जाएगा। दोबारा किसी और दिन खेल जाने वाले मैच में दूसरे खिलाड़ी बदले भी जा सकते हैं। परंतु यदि मैच उसी दिन खेला जाए तो उसमें वही खिलाड़ी खेलेंगे जो पहले खेले थे।
    यदि किसी खिलाड़ी को चोट लग जाए तो उस पक्ष का कप्तान 'समय आराम' पुकारेगा, परंतु समय आराम की अवधि दो मिनट से अधिक नहीं होगी तथा चोट लगने वाला खिलाड़ी बदला जा सकता है। खेल की दूसरी पारी शुरू होने से पहले दो खिलाड़ी बदले जा सकते हैं। खेल शुरू होने के समय एक दो से या कम से कम खिलाड़ियों से भी खेल शुरू हो सकता है। जो खिलाड़ी खेल शुरू होने के समय उपस्थित नहीं होते खेल के दौरान किसी भी समय मिल सकते हैं। रैफरी को सूचित करना ज़रुरी है। यदि चोट गम्भीर हो तो उसकी जगह दूसरा खिलाड़ी खेल सकता है।
    किसी भी टीम में पाँच खिलाड़ियों से कम होने की दशा में शुरू किया जा सकता है, परंतु-

    टीम के सभी खिलाड़ी आउट होने पर अनुपस्थित खिलाड़ी भी आउट हो जाएंगे और विपक्षी टीम को 'लोना' दिया जाएंगा।
    यदि अनुपस्थित खिलाड़ी आ जाएं तो वे रैफरी की आज्ञा से खेल में भाग ले सकते हैं।
    अनुपस्थित खिलाड़ी के स्थानापन्न कभी भी लिए जा सकते हैं। परंतु जब वे इस प्रकार लिए जाते हैं तो मैच के अंत तक किसी भी खिलाड़ी को बदला नहीं जा सकता।
    मैच पुन: खेले जाने पर किसी भी खिलाड़ी को बदला नहीं जा सकता।

    खेल के दौरान कप्तान या नेता के अतिरिक्त कोई भी खिलाड़ी अनुदेश न देगा। कप्तान अपने अर्द्धक में ही अनुदेश दे सकता है।
    यदि खिलाड़ी कबड्डी शब्द का उच्चारण ठीक प्रकार से नहीं करता तथा रैफरी द्वारा एक बार चेतावनी दिए जाने पर वह बार-बार ऐसा करता है तो दूसरी टीम को एक प्वाइंट दे दिया जाएगा परंतु वह खिलाड़ी बैठेगा नहीं।
    यदि कोई खिलाड़ी आक्रमण करने जा रहा है और उस टीम का कोच या अधिकारी ऐसा करता है तो रैफरी दूसरी टीम को विरुद्ध एक प्वाइंट अंक दे देगा।

अधिकारी और निर्णायक

    रैफरी- एक
    अम्पायर- दो
    रेखा निरीक्षक- दो
    स्कोरर- एक

अधिकारी के अधिकार

    आम तौर पर निर्णायक का निर्णय अंतिम होगा। विशेष दशाओं में रैफरी इसे बदल भी सकता है भले ही दोनों अम्पायरों में मतभेद हो।
    निर्णेता किसी भी खिलाड़ी को त्रुटि करने पर चेतावनी दे सकता है, उसके विरुद्ध अंक दे सकता है या मैच के लिए अयोग्य घोषित कर सकता है ये त्रुटियाँ इस प्रकार की हो सकती हैं।
    निर्णय के बारे में अधिकारियों को बार-बार कहना-

    आधकारियों को अपमानजनक शब्द कहना,
    अधिकारियों के प्रतिअभद्र व्यवहार करना या उनके निर्णय को प्रभावित करने के लिए प्रक्रिया,
    विपक्षी को अपमानजनक बातें कहना।
त्रुटियाँ

    आक्रामक का मुँह बन्द करके या गला दबा कर उसकी सांस तोड़ने की कोशिश करना।
    हिसात्मक ढंग का प्रयोग।
    कैंची मार कर आक्रामक को पकड़ना।
    आक्रामक भेजने में पाँच सैकिंड से अधिक समय लगाना।
    मैदान के बारे खिलाड़ी या कोच द्वारा कोचिंग देना। इस नियम के उल्लंघन पर अम्पायर अंक दे सकता है।
    जान-बूझ कर बालों से या कपड़े से पकड़ना फाऊल है।
    जान-बूझ कर आक्रामक को धक्का देना फाऊल है।

Saturday 14 January 2012

Vaedic Kathayen

ध्रुव जब श्रीहरि के लोक में जाने लगे, तो वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप गए थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम कल्प था। बहुत से लोग उसे उत्कल भी कहते थे। उत्कल की सांसारिक सुखों और राज्य में बिल्कुल रूचि नहीं थी। वह विरक्त था, समदर्शी था। उसे अपने और दूसरों में बिलकुल भेद मालूम नहीं होता था। वह अपने ही भीतर समस्त प्राणियों को देखता था। अतः उसने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया। जब ध्रुव के ज्येष्ठ पुत्र ने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया तो ध्रुव का कनिष्ठ पुत्र राजसिंहासन पर बैठा। वह बड़ा धर्मात्मा और बुद्धिमान था। उसने बहुत दिनों तक राज्य किया। उसके राज्य में चारों ओर शांति थी। प्रजा को बड़ा सुख था।
वत्सर के ही वंश में एक ऐसा राजा उत्पन्न हुआ जो धर्म की प्रतिमूर्ति था। वह सत्यव्रती और बड़ा शूरवीर था। जिस प्रकार बसंत ऋतु में प्रकृति फूली, फली रहती है, उसी प्रकार उस राजा के राज्य में प्रजा फूली और फली रहती थी। उस राजा का नाम अंग था। अंग की कीर्ति−चांदनी चारों ओर छिटकी हुई थी। छोटे−बड़े सभी उसके यश का गान करते थे। वह पुण्यात्मा तो था ही, बड़ा प्रजापालक भी था। उसकी प्रजा उसका आदर उसी प्रकार करती थी, जिस प्रकार लोग देवताओं का आदर करते हैं।
एक बार अंग ने एक बहुत बड़े यज्ञ की रचना की। यज्ञ में बड़े−बड़े ऋषि−मुनि और विद्वान ब्राह्मण बुलाए गए थे। यज्ञ के लिए पवित्र स्थानों से चुन−चुनकर सामग्रियाँ मंगायी गयीं थीं। तीर्थस्थानों से जल मंगाया गया था। शुद्ध और पवित्र लकड़ियाँ इकट्ठी की गई थीं। किंतु विद्वान ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रों के साथ देवताओं को आहुतियाँ दीं तो देवताओं ने उन आहुतियों को लेना अस्वीकार कर दिया। केवल यही नहीं, प्रार्थनापूर्वक बुलाए जाने पर भी देवतागण भाग लेने के लिए नहीं आए। विद्वान ब्राह्मणों ने चिंतित होकर कहा, 'महाराज! यज्ञ की सामग्रियाँ पवित्र हैं, जल भी शुद्ध है और यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण भी शुद्ध तथा चरित्रनिष्ठ हैं किंतु फिर भी देवगण आहुतियों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, मन्त्रों से अभिमन्त्रित किए जाने पर भी अपना भाग लेने के लिए नहीं आ रहे हैं।' विद्वान ब्राह्म्णों के कथन को सुनकर महाराज अंग चिंतित और दुःखी हो उठे। उन्होंने दुःख भरे स्वर में कहा, 'पूज्य ब्राह्मणों, यह तो बड़े दुःख की बात है। क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है या मुझसे कोई दूषित कर्म हुआ है? मैंने तो अपनी समझ में आज तक कोई ऐसा कार्य किया नहीं।'
विद्वान ब्राह्म्णों ने उत्तर में कहा, 'आप तो बड़े धर्मात्मा और पुण्यात्मा हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि आपके द्वारा कभी कोई पाप कर्म हुआ होगा। इस जन्म में तो आपने कभी कोई दूषित कर्म किया नहीं। हो सकता है, पूर्वजन्म में आपने कोई पाप कर्म किया हो। मनुष्य को पूर्वजन्म में किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल भी भोगना पड़ता है।' महाराज अंग ने दुःख के साथ निवेदन किया, 'यज्ञ मंडप में बड़े−बड़े विद्वान ब्राह्मण और ऋषि व मुनि एकत्र हैं। यहाँ ऐसे भी ऋषि और मुनि हैं जो तीनों कालों के ज्ञाता हैं। मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे अवगत कराएं, इस जन्म में या पूर्वजन्म में मुझसे कौन−सा दूषित कर्म हुआ है?' महाराज अंग की प्रार्थना को सुनकर ऋषिगण विचारों में डूब गए। कुछ क्षणों के पश्चात ऋषियों ने कहा, 'महाराज, इस जन्म में या पूर्वजन्म में आपसे कोई पाप कर्म नहीं हुआ है। सच बात तो यह है कि आप पुत्रहीन हैं। जो पुत्रहीन होता है, देवगण उसके यज्ञ की आहुतियाँ स्वीकार नहीं करते। अतः यदि आप देवताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करें। जब तक आप पुत्र प्राप्त नहीं कर लेंगे, देवगण आपकी आहुतियों को स्वीकार नहीं करेंगे।' ऋषियों और मुनियों की सलाह से महाराज अंग ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। यज्ञकुंड में एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जो अपने हाथों में खीर का पात्र लिए हुए था। उसने खीर के पात्र को महाराज अंग की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'महाराज, पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दीजिए। आपको अवश्यमेव पुत्र की प्राप्ति होगी।'
दिव्य पुरुष अंग को खीर का पात्र देकर अदृश्य हो गया। अंग की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। उन्होंने पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दिया। रानी गर्भवती हुईं। उन्होंने समय पर एक बालक को जन्म दिया। ज्योतिषियों ने बालक की कुण्डली बनाकर, उसके ग्रहों के अनुसार उसका नाम वेणु रखा। वेणु का अर्थ होता है − बांस। जहाँ बांस पैदा होता है, वहाँ दूसरे पौधे पैदा नहीं होते। यों भी कहा जा सकता है कि, बांस दूसरे पौधों को उगने नहीं देता है। बांसों की रगड़ से कभी−कभी आग लग जाती है तो सारे बांस अपनी ही आग में जल जाया करते हैं व दूसरों को भी जला देते हैं। वेणु की कुण्डली में भी इसी प्रकार के ग्रह पड़े थे। वेणु धीरे−धीरे बड़ा हुआ। वह जब बड़ा हुआ, तो अंग के उलटे रास्ते पर चलने लगा। जुआ खेलने लगा, मद्यपान करने लगा और परायी स्त्रियों की लज्जा को लूटने लगा। उसके अत्याचारों से प्रजा कांप उठी। अंग के कानों में जब वेणु के बुरे कर्मों के समाचार पड़े, तो वे बड़े दुःखी हुए। उन्होंने वेणु को समझाने का प्रयत्न किया, किंतु वह क्यों मानने लगा? उसकी जन्मकुण्डली में तो ग्रह ही बुरे पड़े थे। किसी ने ठीक ही कहा है−
फूलहि फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंच सम।।
अंग के बहुत समझाने पर भी जब वेणु ने बुरे कर्मों का परित्याग नहीं किया, तो वे बड़े दुःखी हुए। वे सब कुछ छोड़कर तप करने के लिए वन में चले गए। मनुष्य का जब कोई बस नहीं चलता, तो वह ईश्वर को छोड़कर और किसी का सहारा नहीं लेता। महाराज के चले जाने पर वेणु राजसिंहासन पर आसीन हुआ। वह अतिचारी और अविचारी तो पहले से ही था, जब राजसिंहासन पर बैठा, तो उसके बुरे विचारों को पंख लग गए। वह अपने आप को सर्वेश्वर और अखिलेश्वर समझने लगा। उसने अपने राज्य में चारों ओर आदेशपत्र प्रचारित किया− 'कोई भी मनुष्य यज्ञ न करे, पूजा−पाठ न करे, ईश्वर का नाम न ले, ईश्वर के गुणों का गुणगान न करे। जो मनुष्य ऐसा करेगा, उसे दण्ड दिया जाएगा। प्रत्येक प्रजाजन को ईश्वर की जगह पर वेणु की ही पूजा करनी चाहिए। वेणु के ही यश−गुणों का गान करना चाहिए, क्योंकि वेणु ही परमात्मा है, अखिलेश्वर है।' वेणु की घोषणा ने सारे राज्य में हलचल उत्पन्न की दी। किंतु कोई कर क्या सकता था? उसके सैनिक और सिपाही राज्य में चारों ओर घूम−घूमकर उसकी आज्ञा का पालन करवा रहे थे। जो मनुष्य उसके आदेश का उल्लंघन करता था, उसे तलवार के घाट उतार दिया जाता था, उसके घर को जला दिया जाता था। वेणु और उसके सिपाहियों के अत्याचारों से चारों ओर हाहाकार पैदा हो उठा, दुःख और पीड़ा के बादल छा गए।
राज्य में रहने वाले ऋषि, मुनि और ब्राह्मण चिंतित हो उठे। वे वेणु को समझाने के लिए उसकी सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने वेणु को समझाते हुए कहा, 'महाराज, आप जो कुछ कर रहे हैं, वह आपके पूर्वजों के विपरीत है। आपके पूर्वजों में स्वयंभू मनु और ध्रुव प्रजा को पुत्रवत मानते थे। वे प्रजा का पालन करना ही अपना सबसे बड़ा धर्म समझते थे। आपके पूर्वज ईश्वरानुरागी थे। वे अपने को ईश्वर का तुच्छ सेवक समझते थे। जो राजा प्रजा का पालन नहीं करता, उसे नर्क की यातना भोगनी पड़ती है।' किंतु वेणु के हृदय पर ऋषियों और मुनियों के कथन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वह उनके कथन के उत्तर में बोला, 'ऋषियों, राजा के शरीर में देवता वास करते हैं। अतः वही सर्वश्रेष्ठ है। प्रजा को उसी का गुणानुवाद करना चाहिए, उसी को सर्वेश्वर मानना चाहिए। मैंने जो कुछ किया है, ठीक ही किया है। तुम सबको मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए। मेरे बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए।' वेणु का खरा उत्तर सुनकर ऋषियों और मुनियों ने सोचा, वेणु के हृदय पर किसी भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मनुष्य जब उन्मत्त हो जाता है, तो वह अपने हाथों से ही अपना विनाश कर डालता है।
ऋषि और मुनिगण दुःखी होकर वन में चले गए। वेणु निडर होकर पापाचार से खेलने लगा। अत्याचार का व्यापार करने लगा। प्रजा उसके अत्याचारों से दुःखी होकर करुण क्रंदन करने लगी, चीत्कार करने लगी, सकरुण स्वरों में भगवान को पुकारने लगी। प्रजा की पुकार ऋषियों के कर्णकुहरों में पड़ी। ऋषियों ने एकत्र होकर सोचा, वेणु जब तक जीवित रहेगा, उसका अत्याचार बंद न होगा। अतः उसे मार डालना चाहिए। अत्याचारी और अधर्मी को मार डालने से पाप नहीं लगता। ऋषियों और मुनियों ने अपने मन्त्रों की शक्ति से वेणु को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। जो अत्याचार करता है, जो अधर्म के पथ पर चलता है, एक न एक दिन सज्जनों के हाथों से वेणु के समान ही मारा जाता है।

ven ka Vinash

ध्रुव जब श्रीहरि के लोक में जाने लगे, तो वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप गए थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम कल्प था। बहुत से लोग उसे उत्कल भी कहते थे। उत्कल की सांसारिक सुखों और राज्य में बिल्कुल रूचि नहीं थी। वह विरक्त था, समदर्शी था। उसे अपने और दूसरों में बिलकुल भेद मालूम नहीं होता था। वह अपने ही भीतर समस्त प्राणियों को देखता था। अतः उसने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया। जब ध्रुव के ज्येष्ठ पुत्र ने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया तो ध्रुव का कनिष्ठ पुत्र राजसिंहासन पर बैठा। वह बड़ा धर्मात्मा और बुद्धिमान था। उसने बहुत दिनों तक राज्य किया। उसके राज्य में चारों ओर शांति थी। प्रजा को बड़ा सुख था।
वत्सर के ही वंश में एक ऐसा राजा उत्पन्न हुआ जो धर्म की प्रतिमूर्ति था। वह सत्यव्रती और बड़ा शूरवीर था। जिस प्रकार बसंत ऋतु में प्रकृति फूली, फली रहती है, उसी प्रकार उस राजा के राज्य में प्रजा फूली और फली रहती थी। उस राजा का नाम अंग था। अंग की कीर्ति−चांदनी चारों ओर छिटकी हुई थी। छोटे−बड़े सभी उसके यश का गान करते थे। वह पुण्यात्मा तो था ही, बड़ा प्रजापालक भी था। उसकी प्रजा उसका आदर उसी प्रकार करती थी, जिस प्रकार लोग देवताओं का आदर करते हैं।
एक बार अंग ने एक बहुत बड़े यज्ञ की रचना की। यज्ञ में बड़े−बड़े ऋषि−मुनि और विद्वान ब्राह्मण बुलाए गए थे। यज्ञ के लिए पवित्र स्थानों से चुन−चुनकर सामग्रियाँ मंगायी गयीं थीं। तीर्थस्थानों से जल मंगाया गया था। शुद्ध और पवित्र लकड़ियाँ इकट्ठी की गई थीं। किंतु विद्वान ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रों के साथ देवताओं को आहुतियाँ दीं तो देवताओं ने उन आहुतियों को लेना अस्वीकार कर दिया। केवल यही नहीं, प्रार्थनापूर्वक बुलाए जाने पर भी देवतागण भाग लेने के लिए नहीं आए। विद्वान ब्राह्मणों ने चिंतित होकर कहा, 'महाराज! यज्ञ की सामग्रियाँ पवित्र हैं, जल भी शुद्ध है और यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण भी शुद्ध तथा चरित्रनिष्ठ हैं किंतु फिर भी देवगण आहुतियों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, मन्त्रों से अभिमन्त्रित किए जाने पर भी अपना भाग लेने के लिए नहीं आ रहे हैं।' विद्वान ब्राह्म्णों के कथन को सुनकर महाराज अंग चिंतित और दुःखी हो उठे। उन्होंने दुःख भरे स्वर में कहा, 'पूज्य ब्राह्मणों, यह तो बड़े दुःख की बात है। क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है या मुझसे कोई दूषित कर्म हुआ है? मैंने तो अपनी समझ में आज तक कोई ऐसा कार्य किया नहीं।'
विद्वान ब्राह्म्णों ने उत्तर में कहा, 'आप तो बड़े धर्मात्मा और पुण्यात्मा हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि आपके द्वारा कभी कोई पाप कर्म हुआ होगा। इस जन्म में तो आपने कभी कोई दूषित कर्म किया नहीं। हो सकता है, पूर्वजन्म में आपने कोई पाप कर्म किया हो। मनुष्य को पूर्वजन्म में किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल भी भोगना पड़ता है।' महाराज अंग ने दुःख के साथ निवेदन किया, 'यज्ञ मंडप में बड़े−बड़े विद्वान ब्राह्मण और ऋषि व मुनि एकत्र हैं। यहाँ ऐसे भी ऋषि और मुनि हैं जो तीनों कालों के ज्ञाता हैं। मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे अवगत कराएं, इस जन्म में या पूर्वजन्म में मुझसे कौन−सा दूषित कर्म हुआ है?' महाराज अंग की प्रार्थना को सुनकर ऋषिगण विचारों में डूब गए। कुछ क्षणों के पश्चात ऋषियों ने कहा, 'महाराज, इस जन्म में या पूर्वजन्म में आपसे कोई पाप कर्म नहीं हुआ है। सच बात तो यह है कि आप पुत्रहीन हैं। जो पुत्रहीन होता है, देवगण उसके यज्ञ की आहुतियाँ स्वीकार नहीं करते। अतः यदि आप देवताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करें। जब तक आप पुत्र प्राप्त नहीं कर लेंगे, देवगण आपकी आहुतियों को स्वीकार नहीं करेंगे।' ऋषियों और मुनियों की सलाह से महाराज अंग ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। यज्ञकुंड में एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जो अपने हाथों में खीर का पात्र लिए हुए था। उसने खीर के पात्र को महाराज अंग की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'महाराज, पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दीजिए। आपको अवश्यमेव पुत्र की प्राप्ति होगी।'
दिव्य पुरुष अंग को खीर का पात्र देकर अदृश्य हो गया। अंग की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। उन्होंने पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दिया। रानी गर्भवती हुईं। उन्होंने समय पर एक बालक को जन्म दिया। ज्योतिषियों ने बालक की कुण्डली बनाकर, उसके ग्रहों के अनुसार उसका नाम वेणु रखा। वेणु का अर्थ होता है − बांस। जहाँ बांस पैदा होता है, वहाँ दूसरे पौधे पैदा नहीं होते। यों भी कहा जा सकता है कि, बांस दूसरे पौधों को उगने नहीं देता है। बांसों की रगड़ से कभी−कभी आग लग जाती है तो सारे बांस अपनी ही आग में जल जाया करते हैं व दूसरों को भी जला देते हैं। वेणु की कुण्डली में भी इसी प्रकार के ग्रह पड़े थे। वेणु धीरे−धीरे बड़ा हुआ। वह जब बड़ा हुआ, तो अंग के उलटे रास्ते पर चलने लगा। जुआ खेलने लगा, मद्यपान करने लगा और परायी स्त्रियों की लज्जा को लूटने लगा। उसके अत्याचारों से प्रजा कांप उठी। अंग के कानों में जब वेणु के बुरे कर्मों के समाचार पड़े, तो वे बड़े दुःखी हुए। उन्होंने वेणु को समझाने का प्रयत्न किया, किंतु वह क्यों मानने लगा? उसकी जन्मकुण्डली में तो ग्रह ही बुरे पड़े थे। किसी ने ठीक ही कहा है−
फूलहि फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंच सम।।
अंग के बहुत समझाने पर भी जब वेणु ने बुरे कर्मों का परित्याग नहीं किया, तो वे बड़े दुःखी हुए। वे सब कुछ छोड़कर तप करने के लिए वन में चले गए। मनुष्य का जब कोई बस नहीं चलता, तो वह ईश्वर को छोड़कर और किसी का सहारा नहीं लेता। महाराज के चले जाने पर वेणु राजसिंहासन पर आसीन हुआ। वह अतिचारी और अविचारी तो पहले से ही था, जब राजसिंहासन पर बैठा, तो उसके बुरे विचारों को पंख लग गए। वह अपने आप को सर्वेश्वर और अखिलेश्वर समझने लगा। उसने अपने राज्य में चारों ओर आदेशपत्र प्रचारित किया− 'कोई भी मनुष्य यज्ञ न करे, पूजा−पाठ न करे, ईश्वर का नाम न ले, ईश्वर के गुणों का गुणगान न करे। जो मनुष्य ऐसा करेगा, उसे दण्ड दिया जाएगा। प्रत्येक प्रजाजन को ईश्वर की जगह पर वेणु की ही पूजा करनी चाहिए। वेणु के ही यश−गुणों का गान करना चाहिए, क्योंकि वेणु ही परमात्मा है, अखिलेश्वर है।' वेणु की घोषणा ने सारे राज्य में हलचल उत्पन्न की दी। किंतु कोई कर क्या सकता था? उसके सैनिक और सिपाही राज्य में चारों ओर घूम−घूमकर उसकी आज्ञा का पालन करवा रहे थे। जो मनुष्य उसके आदेश का उल्लंघन करता था, उसे तलवार के घाट उतार दिया जाता था, उसके घर को जला दिया जाता था। वेणु और उसके सिपाहियों के अत्याचारों से चारों ओर हाहाकार पैदा हो उठा, दुःख और पीड़ा के बादल छा गए।
राज्य में रहने वाले ऋषि, मुनि और ब्राह्मण चिंतित हो उठे। वे वेणु को समझाने के लिए उसकी सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने वेणु को समझाते हुए कहा, 'महाराज, आप जो कुछ कर रहे हैं, वह आपके पूर्वजों के विपरीत है। आपके पूर्वजों में स्वयंभू मनु और ध्रुव प्रजा को पुत्रवत मानते थे। वे प्रजा का पालन करना ही अपना सबसे बड़ा धर्म समझते थे। आपके पूर्वज ईश्वरानुरागी थे। वे अपने को ईश्वर का तुच्छ सेवक समझते थे। जो राजा प्रजा का पालन नहीं करता, उसे नर्क की यातना भोगनी पड़ती है।' किंतु वेणु के हृदय पर ऋषियों और मुनियों के कथन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वह उनके कथन के उत्तर में बोला, 'ऋषियों, राजा के शरीर में देवता वास करते हैं। अतः वही सर्वश्रेष्ठ है। प्रजा को उसी का गुणानुवाद करना चाहिए, उसी को सर्वेश्वर मानना चाहिए। मैंने जो कुछ किया है, ठीक ही किया है। तुम सबको मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए। मेरे बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए।' वेणु का खरा उत्तर सुनकर ऋषियों और मुनियों ने सोचा, वेणु के हृदय पर किसी भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मनुष्य जब उन्मत्त हो जाता है, तो वह अपने हाथों से ही अपना विनाश कर डालता है।
ऋषि और मुनिगण दुःखी होकर वन में चले गए। वेणु निडर होकर पापाचार से खेलने लगा। अत्याचार का व्यापार करने लगा। प्रजा उसके अत्याचारों से दुःखी होकर करुण क्रंदन करने लगी, चीत्कार करने लगी, सकरुण स्वरों में भगवान को पुकारने लगी। प्रजा की पुकार ऋषियों के कर्णकुहरों में पड़ी। ऋषियों ने एकत्र होकर सोचा, वेणु जब तक जीवित रहेगा, उसका अत्याचार बंद न होगा। अतः उसे मार डालना चाहिए। अत्याचारी और अधर्मी को मार डालने से पाप नहीं लगता। ऋषियों और मुनियों ने अपने मन्त्रों की शक्ति से वेणु को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। जो अत्याचार करता है, जो अधर्म के पथ पर चलता है, एक न एक दिन सज्जनों के हाथों से वेणु के समान ही मारा जाता है।

Varun Dev Ka Vardan ......Bodh Katha

मां−बाप के मर जाने पर त्रिलोकनाथ अनाथ हो गया। परिवार में अब केवल बड़ा भाई आलोक बचा था जो उससे द्वेष रखता था, क्योंकि वह सौतेला था। आलोक शादी−शुदा था। उसकी पत्नी उसके कहने में चलती थी और पति की भांति वह भी त्रिलोकनाथ से कोई ख़ास स्नेह नहीं रखती थी। अतः त्रिलोक को रूखा−सूखा जो कुछ भी मिलता, वह उसी में संतोष कर लेता था। आलोक और उसकी पत्नी आराम से रहते, खाते−पीते और मौज करते थे, जबकि त्रिलोक दिन−भर घर का काम करता, जानवरों को चारा−पानी देता और बाकी समय खेतों में जुटा रहता। फिर भी वह भर पेट भोजन नहीं पाता था। इस पर भी वह संतोषी इतना था कि किसी से कोई शिकवा−शिकायत नहीं करता था। कुछ दिन बाद आलोक ने उसका विवाह कर दिया और जायदाद का बँटवारा करके उसे अपने से अलग कर दिया। दोनों भाई अलग−अलग गृहस्थी चलाने लगे।
आलोक ने मां−बाप की एकत्रित की गई धनराशि का बड़ा हिस्सा पहले ही हथिया लिया था। चालाक और लोभी तो वह था ही, अतः जायदाद में अच्छी और कीमती ज़मीन उसने ले ली थी, जबकि त्रिलोक के हिस्से में बंजर ज़मीन और बेकार की चीजें ही आईं। फिर भी वह कुछ नहीं बोला। जो कुछ मिला, उसे लेकर प्रसन्न मन से अलग रहने लगा। आलोक ने तो बंटवारे में भी छल−कपट से काम लिया था, अतः उसका घर सम्पन्न था। सुख−सुविधा की हर वस्तु उसके घर में मौजूद थी। वह अच्छा खाता−पहनता था और लेन−देन का धंधा भी करता था। इस प्रकार उसका धन दिन−प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। दूसरी ओर त्रिलोक मेहनत−मजदूरी करके अपना पेट पाल रहा था। आलोक दिन−प्रतिदिन अमीर होता जा रहा था और त्रिलोक ग़रीब। घर की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उसे जब−तब त्रिलोक के आगे हाथ फैलाना पड़ता था। जिसका परिणाम यह निकला कि कुछ ही वर्षों में त्रिलोक की सारी ज़मीन आलोक के यहाँ गिरवी हो गई। गाँव के दूसरे लोगों का भी बहुत−सा कर्ज़ उस पर चढ़ गया था। अब वह नित्य मजदूरी करता और उसी से घर का ख़र्च चलाता था।
दूसरी ओर आलोक ने नया पक्का मकान बनवा लिया था। नए बैल ख़रीदे और गाड़ी भी ले आया था। उसकी पत्नी हमेशा जेवरों से लदी रहती थी। इस प्रकार आलोक के यहाँ हर प्रकार की मौज थी। कमी थी तो बस एक, कि आलोक के घर कोई संतान नहीं थी। इसके लिए उसने कई मन्नतें मांगी, मनौतियाँ बोलीं; लेकिन शायद उसके पूर्वजन्मों के कर्मों का ही यह प्रभाव था कि उसके घर−आंगन में किसी बच्चे की किलकारियाँ न गूंज सकीं। अतः कुछ तो सम्पत्ति का प्रभाव, कुछ बेऔलाद होने का दुःख और कुछ धन के अहंकार में आलोक और भी रूखा, झगड़ालू, लालची और कंजूस हो गया था। वह संसार भर की दौलत बटोरकर अपने घर में भर लेने का सपना देखा करता था। कंजूस इतना था कि उसके घर से न कुत्ते को टुकड़ा मिलता था, न किसी भिखारी को भीख। इसके विपरीत त्रिलोक उदार, दयालु, परोपकारी और सरल स्वभाव का था। लड़ाई−झगड़े और बेईमानी से कोसों दूर वह सबकी सेवा के लिए तैयार रहता था। गांव के लोग उसे बहुत चाहते थे। दोनों भाइयों में जमीन−आसमान का अंतर था। आलोक किसी के दुःख में तो क्या, घमंड की वजह से किसी के सुख में भी शामिल होकर राजी न था, जबकि तिरलोक की प्रवृत्ति ऐसी थी कि एक बार किसी के सुख में भले ही न जाए, परंतु दुःख में अवश्य शरीक होता था।
एक दिन त्रिलोक दोपहर को खेतों से काम निपटाकर घर पर लौट रहा था। रास्ते में एक तालाब था। गरमी तो थी ही, अतः त्रिलोक ने सोचा, यहीं नहा लूं। यही सोचकर उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर एक किनारे रख दिया और तालाब में घुस गया। दोपहर का समय होने के कारण आस−पास कोई न था। तालाब में कमल खिले हुए थे। नहाते−नहाते त्रिलोक ने सोचा कि क्यों न दो−चार फूल तोड़ लूं, घर जाते समय मंदिर में चढ़ा दूंगा। गाँव में वरुण देवता का एक बहुत पुराना मंदिर था। लोग बड़ी श्रद्धा से वहाँ पूजा करने जाते थे। त्रिलोक जब फूल तोड़ रहा था, तभी उसकी निगाह एक कली पर पड़ी। वह सोने की तरह चमक रही थी। उत्सुकता में आकर त्रिलोक ने उसे तोड़ लिया। उसके हाथ में आते ही वह कली फूल बन गयी। लेकिन वह फूल साधारण न होकर सोने का फूल था−ठोस और असली। त्रिलोक दंग रह गया। उसकी समझ में नहीं आया कि यह कैसी और किसकी लीला है और अब उसे करना करना चाहिए? ठीक तभी एक बहुत सुंदर मनुष्य जल में प्रकट हुआ और त्रिलोक के पास आकर बोला, 'त्रिलोक! यह फूल मुझे दे दो।' त्रिलोक ने उस अद्भुत मनुष्य की ओर देखते हुए पूछा, 'क्यों? आप कौन हैं? यह सुंदर फूल मैं आपको क्यों दूं?' 'मैं वरुण हूँ। इस तालाब में रोज एक सोने का फूल खिलता है। उसे मैं पूजा में चढ़ाता हूँ। यह वही फूल है। इसलिए लाओ, यह फूल मुझे दे दो।' कहते हुए अद्भुत पुरुष ने हाथ पसार दिया। त्रिलोक ने फूल उसे दे दिया और शर्मिंदा−सा होकर बोला, 'मुझे नहीं मालूम था, इसलिए धोखे में तोड़ लिया था। आप फूल ले जाइए।' कहते हुए उसने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया। वरुण देवता उसकी सरलता और भोलेपन पर प्रसन्न हो उठे। उन्होंने कहा, 'तुम्हारी सच्चाई और संतोषी स्वभाव से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो, तुम क्या चाहते हो? मेरे वरदान से तुम्हारी कोई भी इच्छा पूरी हो जाएगी।' साक्षात वरुण देवता को सामने पाकर त्रिलोक तो वैसे भी हतप्रभ−सा था, अतः निष्कपट भाव से उसने कहा, 'स्वामी! आप तो अंतर्यामी हैं, सब कुछ जानते हैं। मैं आपसे क्या माँगूं? आप जो भी देंगे, मेरे लिए बहुत होगा।' वरुण देवता ने प्रसन्न होकर उसके सिर पर अपना हाथ फेर दिया और कहा, 'फिर भी, तुम कुछ तो कहो। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करना चाहता हूँ। तुम्हारा भोलापन और निःस्वार्थ आचरण देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ।' त्रिलोक ने हाथ जोड़कर कहा, 'भगवान्! यदि आप मुझसे वास्तव में ही प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि मेरे घर में किसी को असंतोष न हो। स्त्री और बच्चे सदा प्रसन्न रहें और मैं जीवनभर आपके मंदिर में पूजा करता रहूँ तथा जितना संभव हो सके, दूसरों के सुख−दुःख में हमेशा काम आ सकूँ।'
'तथास्तु!' कहकर वरुण देवता अंतर्ध्यान हो गए। झटका खाकर गहरी नींद से जागे हुए व्यक्ति की तरह त्रिलोक इधर−उधर देखने लगा। कहीं भी कोई न था। था तो केवल वह तालाब, वही कमल के फूल और पत्ते। लेकिन वरुण देवता या उस सोने के फूल का कहीं कोई चिह्न न था। त्रिलोक सोचने लगा कि कहीं जागती आँखों से वह कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा था। किंतु नहीं, अभी−अभी उसके हाथ में सोने का फूल था और स्वयं वरुण देवता उससे मुखातिब थे। 'हे भगवान! क्या होने वाला है?' इसी प्रकार के विचारों में डूबा हुआ तिरलोक कंधे पर लकड़ियों का गट्ठर लादकर घर की ओर चल पड़ा। दूसरे दिन जैसे कोई चमत्कार होने लगा। त्रिलोक जिस काम में हाथ डालता, उसमें दोगुना नहीं, बल्कि दसियों गुना लाभ होता। उसके घर में सारी चीजें न जाने कैसे बढ़ जाती थीं। कोई भी वस्तु कम नहीं पड़ती थी। चाहे जितना ख़र्च किया जाता, सामान बच ही जाता था। खेतों की पैदावार तो इतनी बढ़ी कि कहीं अनाज रखने की जगह नहीं बची। बहुत−सा धान और अनाज त्रिलोक ने गाँव वालों को बाँट दिया। इतने पर भी घमंड उससे कोसों दूर था। वह तो किसी से ऊँची आवाज में बात भी नहीं करता था। बँटवारे के समय आलोक ने बेईमानी के कारण बाप का बहुत−कर्ज़ बता रखा था। उसका आधा हिस्सा त्रिलोक को भरना पड़ता था। इन दिनों जब वह सम्पन्न हुआ तो महाजन के पास जाकर अपने और आलोक के हिस्से का भी पूरा कर्ज़ अदा कर आया। गाँव के कितने ही ग़रीबों को वह अनाज व कपड़े बाँट देता था। यहाँ तक कि दूसरे गाँवों के लोग भी उससे सहायता लेने लगे। इस प्रकार त्रिलोक की कीर्ति दिनों−दिन बढ़ती जा रही थी। चारों ओर उसकी सहृदयता के चर्चे सुनाई देते थे। आलोक ने यह सब देखकर सोचा, 'क्या त्रिलोक को कोई खजाना मिल गया है? तभी तो वह इस तरह दिल खोलकर रुपया लुटा रहा है। खुद तो मौज मार ही रहा है, दूसरों पर भी धन लुटा रहा है। लगता है, उसने बापू की कोई रकम पहले से ही चुरा रखी थी। जिसका मुझे पता नहीं है और अब इतने दिनों बाद उसे निकालकर मौज कर रहा है। किंतु मैं भी खामोश बैठने वाला नहीं हूँ। मैं यह रहस्य जानकर ही रहूँगा कि उसके पास इतना धन कहाँ से आया।' और फिर दूसरे ही दिन वह त्रिलोक के पास जा पहुँचा। त्रिलोक ने दिल खोलकर उसकी खातिरदारी की। त्रिलोक की पत्नी ने भी उसके आदर से चरण स्पर्श किए। उसके पश्चात त्रिलोक ने पूछा, 'मेरी याद कैसे आ गई भैया?' 'देखो तिरलोक!' आलोक ने कहा, 'तुम मुझे सच−सच बता दो कि तुम इतना सारा धन कहाँ से लाए हो? तुम्हें कहीं से कोई खजाना मिल गया है या बापू की कोई रकम तुम छिपाए हुए थे?' भोले त्रिलोक ने बैर−विरोध भूलकर सारी घटना सच−सच सुना दी कि किस प्रकार वरुण देव ने उसे वरदान दिया था।
वरुण देवता के वरदान की बात सुनकर आलोक ने कहा, 'अच्छा! तो यह बात है।' फिर चुपचाप वह वहाँ से चला आया और घर आते−आते उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि कल मैं भी तालाब पर जाकर वरुण देवता से वरदान प्राप्त करूंगा। दूसरे दिन ठीक दोपहर के समय आलोक तालाब के किनारे जा पहुँचा। इधर−उधर कोई न था। उसने जल्दी−जल्दी वस्त्र उतारे और तालाब में जा घुसा। कुछ देर तक तो वह नहाने का नाटक करता रहा, फिर कमल तोड़ने लगा। एकाएक उसे सोने की कली दिखाई पड़ी। उसकी आँखें फैल गईं−'अरे! इसका मतलब त्रिलोक ने जो बताया, सब सच था।' सोचते हुए उसने लपककर वह कली तोड़ ली। आलोक के कली तोड़ते ही वरुण देवता ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और कहने लगे, 'आलोक! यह फूल मेरी पूजा का है। मुझे दे दो।' आलोक ने देखा, उस देवता का रंग−रूप ठीक वैसा ही है जैसा त्रिलोक ने उसे बताया था। तब अवश्य ही यह वरुण देवता हैं। किंतु उसके मन में किसी−भी प्रकार का भक्ति−भाव उत्पन्न नहीं हुआ। लोभ से उतावली उसकी बुद्धि यह सोच रही थी कि मुझे इनसे कौन−सा वरदान माँगना चाहिए?' तब तक वरुण देवता ने फिर कहा, 'लाओ आलोक! मेरा फूल मुझे दे दो। पूजा के लिए देर हो रही है।' आलोक हौले से चौंका फिर संभलकर बोला, 'पहले मुझे कोई वरदान तो दीजिए। बिना वरदान पाए मैं फूल नहीं दूँगा।' वरुण देवता को उसका व्यवहार पसंद नहीं आया। वे समझ गए कि यह व्यक्ति लालची है। अवश्य ही यह अपने भाई त्रिलोक की कहानी जानकर यहाँ आया है ताकि उसकी भाँति मुझसे कोई वर पा सके। अतः वे बड़े ही रूखे स्वर में बोले, 'बोलो, कौन−सा वरदान चाहते हो?' आलोक चालाक था। इतनी देर में उसने वरदान सोच लिया था। वह बोला, 'मुझे यह वरदान दीजिए कि मैं जो कुछ चाहूं, जो भी सोचूं, जैसी भी इच्छा करूं; वह सब पूर्ण हो जाए।' 'ठीक है। ऐसा ही होगा। लाओ, अब फूल मुझे दो।' 'लीजिए' आलोक ने खुशी−खुशी फूल उन्हें दे दिया। वरुण देवता अंतर्ध्यान हो गए।
आलोक जल्दी से सरोवर से निकला और लंबे−लंबे डग भरता हुआ गाँव की ओर चल दिया। वरुण देवता के वरदान का लाभ उठाने के लिए वह बेचैन हो रहा था। जैसे−तैसे घर पहुंचकर उसने अपनी पत्नी से कहा, 'मैं वरुण देवता से वरदान प्राप्त कर चुका हूँ। यदि वह सच्चा निकला तो मेरी बराबरी दुनिया में कोई नहीं कर सकेगा। आओ, वरुण देवता के वरदान की आजमाइश करते हैं। बोलो, क्या माँगें?' 'आप ही माँगिए। वरुणदेव ने आपको ही वरदान दिया है।' 'ठीक है, मैं ही माँगता हूँ।' आलोक बोला, फिर मन ही मन में उसने कहा, 'मैं थाली भर मिठाई चाहता हूँ।' तुरंत मिठाई आ गई। अब पति−पत्नी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही न रहा। दोनों ने पेट−भर मिठाई खाई। उसके बाद आलोक ने जेवर, कपड़े और मकान की इच्छा की। वे सब इच्छाएँ भी क्षण भर में पूरी हो गईं। अब तो आलोक अपने को साक्षात विष्णु और इंद्र समझने लगा। पलक झपकते ही वह साधारण किसान से कुबेर हो गया था। अब तो संसार−भर की सारी सहूलियतें उसकी मुट्ठी में थीं। लोभी और अहंकारी तो वह था ही, ये सब पाकर उसका लोभ और अहंकार और भी बढ़ गया। घमंड ने उसकी बुद्धि को और अधिक भ्रष्ट कर दिया और इतना वैभव पाकर भी उसने वरुण देवता को धन्यवाद नहीं दिया। उसी शाम को आलोक की पत्नी त्रिलोक के घर गई ताकि अपने वैभव का बखान करके उस पर रोब जमा सके। लौटते समय अँधेरा हो गया। जब वह घर आई तब आलोक बाहर बरामदे में ही बैठा था। अँधेरे के कारण ठीक से दिखाई नहीं पड़ रहा था इसलिए आलोक उसे पहचान न सका। यह सर्वविदित है कि जिसके मन में कपट और चोर होता है, वह हमेशा उलटी बातें ही सोचता है। उसे देखकर आलोक भी सोचने लगा−'अरे, इतना मोटा, इतना काला आदमी कौन है? कहीं यह कोई भूत−प्रेत तो नहीं है?' ऐसा सोचते वक़्त उसे बिलकुल भी ध्यान नहीं रहा कि उसने वरुणदेव से क्या वरदान माँगा था। उसने कहा था कि जो भी चाहूँ, जो भी सोचूं, जो भी करूं; वह पूर्ण हो जाए। फलस्वरूप ऐसा सोचते ही उसकी पत्नी तुरंत प्रेत बन गई। उसे भीतर की ओर आते देखकर आलोक ने सोचा, 'अरे, यह तो अंदर आ रहा है। ऐसा न हो कि यह मुझे पकड़ ले।' आलोक का ऐसा सोचना था कि तुरंत प्रेत ने उसे पकड़ लिया।
भय की वजह से आलोक साँस तक न ले सका। उसकी घिग्घी बंध गई। होश−हवास गायब हो गए। उस पर दहशत इस कदर हावी हुई कि वह चीखना−चिल्लाना भी भूल गया। आँखें आतंक से फट पड़ीं और उसे जान पड़ा कि प्रेत बस, उसे निगलने ही वाला है। और दूसरे ही क्षण प्रेत उसे निगलकर अदृश्य हो गया। वरुण देवता के वरदान से प्राप्त सारा वैभव ज्यों का त्यों पड़ा था। पर उसको प्राप्त करने वाला आलोक प्रेत का आहार बन चुका था। रात भर किसी को मालूम नहीं हुआ कि आलोक के घर में कैसी भयानक घटना घट चुकी है। सवेरे लोगों ने देखा कि दरवाजे में आलोक और उसकी पत्नी की ठिठरी हुई लाशें पड़ी हुईं थीं, मगर क्या हुआ? कैसे हुआ? यह सब कोई भी नहीं जान सका। बेचारे त्रिलोक को भी जब इस घटना का पता चला, तो भाई और भाभी की मौत पर वह भी बेहद दुःखी हुआ। परंतु अब किया भी क्या जा सकता था। रो−रोकर उसने अपने भाई व भाभी का क्रियाकर्म किया और अंत में वही सम्पूर्ण सम्पत्ति का स्वामी बना। उसी रात वरुण देवता ने उसे स्वप्न में आलोक के सर्वनाश का कारण बताते हुए कहा, 'आलोक को दिया हुआ वरदान मैं तुम्हें भी दे सकता हूँ। बोलो, चाहते हो?' त्रिलोक ने उनके चरणों में सिर रख दिया और कहा, 'स्वामी! मुझे आपने पहले जो कुछ दिया है, वही बहुत है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं अपने भाई की सम्पत्ति भी नहीं चाहता। सुबह होते ही मैं इस सारी सम्पत्ति को ग़रीबों और ज़रूरतमंदों में दान कर दूँगा। मुझे तो जो कुछ भी आपने दिया है, मैं उसी में खुश और संतुष्ट हूँ।'
'सदा सुखी रहो' कहकर वरुण देवता ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और अदृश्य हो गए।
त्रिलोक की नींद टूट गई। चौंककर उठ बैठा वह। देखा, पूरब में ऊषा की लाली छा रही थी। वह उठा और वरुण देवता को प्रणाम करने के लिए सीधे मंदिर की ओर चल पड़ा।



Vaedic Kathayen

  • हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने जब दिति के गर्भ से जुड़वां रूप में जन्म लिया, तो धरती कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ, मानो प्रलय आ गई हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते है और अपने अत्याचारों से धरती को कपांने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए बहुत बड़ा तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा, 'तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो?' हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने उत्तर दिया,'प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।' ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए।
  • ब्रह्मा जी से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा। हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इन्द्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की ख़बर मिली, तो वे भयभीत होकर इन्द्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इन्द्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इन्द्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी विभावरी नगरी में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा,'वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।' हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिय। वे बड़े शांत भाव से बोले,'तुम महान योद्धा और शूरवीर हो। तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।' वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पजुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा, एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा,'तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज में पुराने बैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।' यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे।
वराह देव
  • हिरण्याक्ष भगवान वराह रूपी विष्णु के पीछे लग गया। वह कभी उन्हें निर्लज्ज कहता, कभी कायर कहता और कभी मायावी कहता, पर भगवान विष्णु केवल मुस्कराकर रह जाते। उन्होंने रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया। हिरण्याक्ष उनके पीछे लगा हुआ था। अपने वचन-बाणों से उनके ह्रदय को बेध रहा था। भगवान विष्णु ने धरती को स्थापित करने के पश्चात हिरण्याक्ष की ओर ध्यान दिया। उन्होंने हिरण्याक्ष की ओर देखते हुए कहा,'तुम तो बड़े बलवान हो। बलवान लोग कहते नहीं हैं, करके दिखाते हैं। तुम तो केवल प्रलाप कर रहे हो। मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं। तुम क्यों नहीं मुझ पर आक्रमण करते? बढ़ो आगे, मुझ पर आक्रमण करो।' हिरण्याक्ष की रगों में बिजली दौड़ गई। वह हाथ में गदा लेकर भगवान विष्णु पर टूट पड़ा। भगवान के हाथों में कोई अस्त्र शस्त्र नहीं था। उन्होंने दूसरे ही क्षण हिरण्याक्ष के हाथ से गदा छीनकर दूर फेंक दी। हिरण्याक्ष क्रोध से उन्मत्त हो उठा। वह हाथ में त्रिशूल लेकर भगवान विष्णु की ओर झपटा।
  • भगवान ने शीघ्र ही सुदर्शन का आह्वान किया— चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हिरण्याक्ष अपनी माया का प्रयोग करने लगा। वह कभी प्रकट होता, तो कभी छिप जाता, कभी अट्टहास करता, तो कभी डरावने शब्दों में रोने लगता, कभी रक्त की वर्षा करता, तो कभी हड्डियों की वर्षा करता। भगवान विष्णु उसके सभी माया कृत्यों को नष्ट करते जा रहे थे। जब भगवान विष्णु हिरण्याक्ष को बहुत नचा चुके, तो उन्होंने उसकी कनपटी पर कस कर एक चपत जमाई। उस चपत से उसकी आंखें निकल आईं। वह धरती पर गिरकर निश्चेष्ट हो गया। भगवान विष्णु के हाथों मारे जाने के कारण हिरण्याक्ष बैकुंठ लोक में चला गया। वह फिर भगवान के द्वार का प्रहरी बनकर आनंद से जीवन व्यतीत करने लगा।
  • भगवान विष्णु से प्रेम करना भी अच्छा है, बैर करना भी अच्छा है। जो प्रेम करता है, वह भी विष्णुलोक में जाता है, और जो बैर करता है, वह उनसे दण्ड पाकर विष्णुलोक में जाता है। प्रेम और बैर भगवान की दृष्टि में दोनों बराबर हैं। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान सब प्रकार के भेदों से परे, बहुत परे।

Vaedic Kathayen

  • कल्पांत के पूर्व एक बार ब्रह्मा जी की असावधानी के कारण एक बहुत बड़े दैत्य ने वेदों को चुरा लिया था। उस दैत्य का नाम हयग्रीव था। वेदों को चुरा लिए जाने के कारण ज्ञान लुप्त हो गया। चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैल गया और पाप तथा अधर्म का बोलबाला हो गया। तब भगवान ने धर्म की रक्षा के लिए मत्स्य धारण करके हयग्रीव का वध किया और वेदों की रक्षा की। भगवान ने मत्स्य का रूप किस प्रकार धारण किया। इसकी विस्मयकारिणी कथा इस प्रकार है।
  • कल्पांत के पूर्व एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। राजा का नाम सत्यव्रत था। सत्यव्रत पुण्यात्मा तो था ही, बड़े उदार ह्रदय का भी था। प्रभात का समय था। सूर्योदय हो चुका था। सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर रहा था। उसने स्नान करने के पश्चात जब तर्पण के लिए अंजलि में जल लिया, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया। मछली बोली, 'राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत के ह्रदय में दया उत्पन्न हो उठी। उसने मछली को जल से भरे हुए अपने कमंडलु में डाल लिया। आश्चर्य! एक रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि कमंडलु उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा। दूसरे दिन मछली सत्यव्रत से बोली। 'राजन! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।' सत्यव्रत ने मछली को कमंडलु से निकालकर पानी से भरे हुए मटके में रख दिया। आश्चर्य! मछली का शरीर रात भर में ही मटके में इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया। दूसरे दिन मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन, मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।' तब सत्यव्रत ने मछली को निकालकर एक सरोवर में डाल किया, किंतु सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया। इसके बाद सत्यव्रत ने मछली को नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल किया। आश्चर्य! समुद्र में भी मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया कि मछली के रहने के लिए वह छोटा पड़ गया। अतः मछली पुनः सत्यव्रत से बोली, 'राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।'
  • सत्यव्रत विस्मित हो उठा। उसने आज तक ऐसी मछली कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला, 'मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? आपक का शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उसे दृष्टि में रखते हुए बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बात सत्य है, तो कृपा करके बताइए के आपने मत्स्य का रूप क्यों धारण किया है?' सचमुच, वह भगवान श्रीहरि ही थे। मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया, 'राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। आपके पास एक नाव पहुंचेगी, आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्तॠषियों के साथ नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दिखाई पड़ूंगा और आपको आत्मतत्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।' सत्यव्रत उसी दिन से हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा। उमड़कर अपनी सीमा से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय एक नाव दिखाई पड़ी। सत्यव्रत सप्तॠषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए, उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए।
  • नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। सहसा मत्स्यरूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्तर्षिगण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे,'हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक है और आप ही रक्षक ही हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।' सत्यव्रत और सप्तॠषियों की प्रार्थना पर मत्स्यरूपी भगवान प्रसन्न हो उठे। उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया, बताया,'सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंच है, न नीच। सभी प्राणी एक समान हैं। जगत नश्वर है। नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।'
  • मत्स्य रूपी भगवान से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वे जीते जी ही जीवन मुक्त हो गए। प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव को मारकर, उससे वेद छीन लिए। भगवान ने ब्रह्माजी को पुनः वेद दे दिए। इस प्रकार भगवान ने मत्स्यरूप धारण करके वेदों का उद्धार तो किया ही, संसार के प्राणियों का भी अमित कल्याण किया। भगवान इसी प्रकार समय-समय पर अवतरित होते हैं और सज्जनों तथा साधुओं का कल्याण करते हैं।

Vaedic Kathayen

जनश्रुति नामक वैदिक काल में एक राजा थे । वे बड़े उदार ह्रदय तथा दानी थे । सारे राज्य में जगह-जगह पर उन्होंने धर्मशालाएं बनावा रखी थीं जहां यात्रियों को निःशुल्क ठहराने तथा भोजन कराने की व्यवस्था थी। वे चाहते थे कि अधिक से अधिक लोग उनका ही अन्न खाएं ताकि उन्हें इस सबका पुण्यफल प्राप्त हो। वह राजा और भी अनेक कार्य जनता की भलाई के लिए करता था जैसे चिकित्सालय खोले हुए थे, जहां पर निर्धन रोगियों का मुफ़्त इलाज होता था। यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कें बनाई गई थीं, छायादार वृक्ष लगाए गए थे। जगह-जगह कुंए तथा बावड़ियों का प्रबंध पानी पीने के लिए किया गया था। इस प्रकार राजा प्रजा की भलाई के लिए निरंतर तत्पर रहता था। परन्तु इन सब कार्यों को करते हुए राजा को यह अभिमान भी हो गया था कि उसके समान प्रजा के हित का ध्यान रखने वाला और यहाँ कोई दूसरा राजा नहीं हो सकता।
एक दिन कुछ हंस रात्रि व्यतीत करने के लिए उड़ते हुए महल की छत पर आकर बैठ गए और आपस में वार्तालाप करने लगे। एक हंस व्यंग्य करते हुए अन्य हंसों से बोला, 'देखो इस जनश्रुति राजा ने इतने पुण्य के कार्य किए हैं कि उसका तेज चारों ओर बिजली के प्रकाश के समान फैल गया है। कहीं उससे छू मत जाना नहीं तो तुम सब भस्म हो जाओगे।' दूसरे हंस ने हंसते हुए उत्तर दिया, 'अरे तुम्हें कुछ मालूम नहीं है। इस राजा के राज्य में एक ब्रह्मज्ञानी रैक्व रहता है। उसके सामने इस राजा के सभी परोपकार के किए गए कार्य तुच्छ हैं। उसका ज्ञान इतना महान है कि उसने परब्रह्म को जान लिया है। उसके सामने इस राजा के ही नहीं प्रजा के भी सभी धार्मिक अनुष्ठान फीके हैं बल्कि राजा-प्रजा जो कुछ भी अच्छे कार्य करते हैं, उन सबका फल ज्ञानी रैक्व को ही प्राप्त हो जाता है।' पूर्व हंस जो व्यंग्य कर रहा था, बोला, 'भाई ऐसा कैसा ज्ञान है जो राजा भी नहीं जानता। वह तो ऐसा समझता है कि उससे बढ़कर कोई दानी तथा ज्ञानवान है ही नहीं।' दूसरे हंस ने गम्भीरता से उत्तर दिया, 'जिस तत्व को ज्ञानी रैक्व जानते हैं, यदि उसको कोई दूसरा भी जान लेगा तो वह भी उन्हीं की भांति दूसरों के पुण्य कार्यों के फलों को प्राप्त कर लेगा।' राजा ने हंसों का यह सारा वार्तालाप सुना। रैक्व के विषय में जानने के लिए वह अत्यन्त व्यग्र हो उठा। किसी प्रकार सोते-जागते उसने रात्रि व्यतीत की तथा प्रातः नित्य कर्मों से निवृत्त होकर अपने मन्त्रियों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि जहां कहीं भी रैक्व नाम के महात्मा हों, उन्हें ढूंढा जाए और उनके मिलते ही उसकी सूचना उन्हें दी जाए।
राजा के सिपाही चारों ओर महात्मा रैक्व को ढूंढने¸के लिए निकल पड़े। सारा देश उन्होंने छान मारा, नगर और ग्राम सभी देखे, लेकिन ब्रह्मज्ञानी रैक्व का कहीं पता नहीं चला। निराश होकर सरदारों ने राजा को यह सूचना दी कि उन महात्मा का कोई पता नहीं चला। तब राजा ने खोज की गई सभी जगहों की जानकारी प्राप्त करने के पश्चात यह आदेश दिया कि उन्हें वनों, पहाड़ों और घाटियों तथा नदियों के किनारे पर ढूंढा जाए न कि ग्राम और नगरों में, क्योंकि ऐसे ज्ञानियों के वहीं ठिकाने हो सकते हैं। खोज पुनः प्रारम्भ हुई और राजा की बात सच निकली। महात्मा रैक्व एक एकान्त जगह पर बैठे हुए अपने शरीर को खुजा रहे थे। एक सिपाही ने उनसे पूछा, 'महाराज क्या आप ही प्रसिद्ध ब्रह्मज्ञानी रैक्व हैं।' रैक्व के सहमति में सिर हिलाने पर सिपाही वापस राजधानी की ओर दौड़े और राजा को महात्मा रैक्व की उपस्थिति की सूचना दी। राजा सैकड़ों गायों, सुवर्ण तथा अन्य सामाग्रियों से भरे हुए एक रथ को लेकर महात्मा के पास पहुंचा और उनकी अच्छी प्रकार से वन्दना करके वह सारी सामग्री उनके समक्ष रखते हुए बोला, 'महात्मा यह सारी सामग्री भेंट के रूप में आपके लिए लाया हूं, कृपया इसे स्वीकार करें और मुझे उस देवता के विषय में बताएं जिसकी आप उपासना करते हैं।' महात्मा ने तिरस्कारपूर्वक उस सारी सामग्री को देखा और राजा से बोले, 'अरे मूर्ख यह सब कुछ मुझे नहीं चाहिए, तू ही इन्हें अपने पास रख और यहाँ से चला जा। मेरी शांति को भंग मत कर।'
राजा चुपचाप वापस चल दिया और सोचने लगा कि महात्मा जी को प्रसन्न करने के लिए वह क्या करे। किसी न किसी प्रकार ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने का अत्यन्त इच्छुक था। सोचते-सोचते उसके मन में यह विचार आया कि वह अपनी सबसे प्यारी वस्तु को महात्मा के चरणों में अर्पित करे, शायद उससे उनका ह्दय पिघल जाए। राजा को सबसे अधिक स्नेह अपनी युवा पुत्री से था। वह पुनः एक हज़ार गाएं, सामग्री से भरा हुआ रथ, सुवर्ण के आभूषण तथा अपनी कन्या को लेकर महाज्ञानी रैक्व के पास पहुंच गया और उनसे सभी वस्तुओं तथा अपनी कन्या को पति के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया तथा ज्ञान देने की प्रार्थनी की। अब महात्मा रैक्व को सच्ची जिज्ञासा का भान हुआ, लेकिन उसके साथ-साथ सांसारिक भोग वस्तुओं के प्रति जो राजा की महत्व देने की प्रवृत्ति थी, उसका भी पता लगा। महात्मा रैक्व ने उसे समझाया, 'क्या तुम समझते हो कि इन सांसारिक वस्तुओं से तुम ब्रह्मज्ञान ख़रीद सकते हो । अरे यह सब तुच्छ हैं। ईश्वरीय ज्ञान के समक्ष इनकी कोई महत्ता नहीं है। ये सब नाशवान हैं। इनका मोह त्याग दो। इन्हें महत्व मत दो, तभी तुम ज्ञान प्राप्त कर सकते हो।' राजा सत्य को समझ गया। वह चुपचाप हाथ-जोड़ कर अपने अभिमान को त्यागकर, महात्मा रैक्व के सामने पृथ्वी पर ही बैठ गया। तब महात्मा रैक्व ने यह समझ लिया कि राजा का अभिमान समाप्त हो गया है। उसे अपने द्वारा किए गए जनहित कार्यों का अभिमान नहीं रहा है और न उसे अपनी धन-सम्पत्ति तथा ऐश्वर्य का ही अभिमान है। वह सच्चा जिज्ञासु है तथा ज्ञान की खोज में ही उनके पास आया है। तब महात्मा ने राजा जनश्रुति को ज्ञान का उपदेश दिया, जिसे प्राप्त कर राजा का जीवन धन्य हो गया और वह भी संसार में एक ज्ञानी महात्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः*
उस दिव्य ज्योति स्वरूप ईश्वर को जानकर जन्म-मरणादि के सब बन्धनों से मनुष्य छूट जाता है।

Vaedic Kathayen

महर्षि याज्ञवल्क्य वैदिक युग में एक अत्यन्त विद्वान व्यक्ति हुए हैं। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम कात्यायनी तथा दूसरी का मैत्रियी था । कात्यायनी सामान्य स्त्रियों के समान थीं, वह घर गृहस्थी में ही व्यस्त रहती थी। सांसारिक भोगों में उसकी अधिक रूचि थी। सुस्वादी भोजन, सुन्दर वस्त्र और विभिन्न प्रकार के आभूषणो में ही वह खोई रहती थी। याज्ञवल्क्य जैसे प्रसिद्ध महर्षि की पत्नी होते हुए भी उसका धर्म में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता था। वह पूरी तरह अपने संसार में मोहित थी। जबकि मैत्रियी अपने पति के साथ प्रत्येक धार्मिक कार्य में लगी रहती थी। उनके प्रत्येक कर्मकाण्ड में सहायता देना तथा प्रत्येक आवश्यक वस्तु उपलब्ध कराने मे उसे आनन्द आता था। अध्यात्म में उसकी गहरी रूचि थी तथा अपने पति के साथ अधिक समय बिताने के कारण आध्यात्मिक जगत में उसकी गहरी पैठ थी। वह प्रायः महर्षि याज्ञवल्क्य के उपदेशों को सुनती, उनके धार्मिक क्रिया-कलापों में सहयोग देती तथा स्वंय भी चिन्तन-मनन में लगी रहती थी। सत्य को जानने की उसमें तीव्र जिज्ञासा थी।
एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ त्यागकर संन्यास लेने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को अपने समीप बुलाया और उनसे बोले, 'हे मेरी प्रिय धर्मपत्नियों, मैं गृहस्थ त्यागकर संन्यास ले रहा हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे पश्चात तुम दोनों में किसी प्रकार का विवाद न हो। इसलिए मेरी जो भी धन-सम्पत्ति है तथा घर में जो भी सामान है, उसे तुम दोनों में आधा-आधा बांट देना चाहता हूं।' कात्यायनी तुंरत तैयार हो गई लेकिन मैत्रियी सोचने लगी कि ऐसी क्या वस्तु है जो गृहस्थ से भी अधिक सुख, सतोंष देने वाली है और जिसे प्राप्त करने के लिए महर्षि गृहस्थ का त्याग कर रहे हैं। वह बोली, 'भगवन आप जिस स्थिति को प्राप्त करने के लिए गृहस्थ का त्याग कर रहे हैं, क्या वह इस गृहस्थ जीवन से अधिक मूल्यवान है?' महर्षि ने उत्तर दिया, 'मैत्रियी वह अमृत है, यह संसार नाशवान है। इसका सुख क्षणिक है, वह स्थायी आनन्द है। उसी की खोज में मैं अपना शेष जीवन व्यतीत कर देना चाहता हूं।' मैत्रियी फिर बोली, 'भगवन यदि धन-धान्य से पूर्ण यह समस्त पृथ्वी मुझे मिल जाए तो क्या मृत्यु मेरा पीछा छोड़ देगी, मैं अमर हो जाऊंगी।' महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा, 'प्रिय मैत्रियी, धन से तो सांसारिक वस्तुओं का ही प्रबंध किया जा सकता है। यह तो शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति, भोग-विलास तथा वैभव का ही साधन है। इससे अमरत्व का कोई सम्बंध नहीं है।' तब मैत्रियी ने कहा, 'यदि ऐसा है तो आप मुझे इससे क्यों बहला रहे हैं। मुझें इसकी आवश्यकता नहीं है। मुझे तो आप उस तत्व का उपदेश दीजिए जिसमें मैं सदा रहने वाला सुख पा सकूं। उसे जान सकूं जिसे जानने के पश्चात कुछ भी जानना शेष नहीं रहता तथा इस आवागमन के चक्र से मुफ़्त होकर सदा-सदा के लिए अमर हो जाऊं।'
महर्षि अपनी पत्नी की सत्य के प्रति जिज्ञासा को जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी पत्नी की प्रशंसा करते हुए कहा, 'हे मैत्रियी, तुम्हारी इस सच्ची लगन को देखकर मैं पहले भी तुमसे प्रसन्न था और तुम्हें प्यार करता था, अब तुम्हारी बातें सुनकर मैं तुमसे बहुत अधिक प्रसन्न हूं, आओ, मेरे पास बैठो, मैं तुम्हें वह ज्ञान दूंगा जिससे वास्तव में तुम्हारी आत्मा का कल्याण होगा और तुम संसार के माया-मोह से सदा के लिए मुफ़्त हो जाओगी।' और ऐसा ही हुआ, मैत्रियी ने अपने पति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके, ईश्वर को पा लिया और उसका मन स्थायी शांति तथा आनन्द से परिपूर्ण हो गया।
ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्मेति* उस कल्याणकारी परमात्मा को जानकर ही भक्त अत्यन्त शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।

Friday 13 January 2012

Nahush Ka Ahankar

नहुष / Nahusha

प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा पुरुरवा का पौत्र था। वृत्तासुर का वध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा और वे इस महादोष के कारण स्वर्ग छोड़कर किसी अज्ञात स्थान में जा छुपे। इन्द्रासन ख़ाली न रहने पाये इसलिये देवताओं ने मिलकर पृथ्वी के धर्मात्मा राजा नहुष को इन्द्र के पद पर आसीन कर दिया। "नहुष अब समस्त देवता, ऋषि और गन्धर्वों से शक्‍ति प्राप्त कर स्वर्ग का भोग करने लगे। अकस्मात एक दिन उनकी द‍ृष्टि इन्द्र की साध्वी पत्‍नी शची पर पड़ी। शची को देखते ही वे कामान्ध हो उठे और उसे प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयत्‍न करने लगे। जब शची को नहुष की बुरी नीयत का आभास हुआ तो वह भयभीत होकर देव-गुरु बृहस्पति के शरण में जा पहुँची और नहुष की कामेच्छा के विषय में बताते हुये कहा, 'हे गुरुदेव! अब आप ही मेरे सतीत्व की रक्षा करें।' गुरु बृहस्पति ने सान्त्वना दी, 'हे इन्द्राणी! तुम चिन्ता न करो। यहाँ मेरे पास रह कर तुम सभी प्रकार से सुरक्षित हो।' इस प्रकार शची गुरुदेव के पास रहने लगी और बृहस्पति इन्द्र की खोज करवाने लगे। अन्त में अग्निदेव ने एक कमल की नाल में सूक्ष्म रूप धारण करके छुपे हुये इन्द्र को खोज निकाला और उन्हें देवगुरु बृहस्पति के पास ले आये।

अश्‍वमेघ यज्ञ

इन्द्र पर लगे ब्रह्महत्या के दोष के निवारणार्थ देव-गुरु बृहस्पति ने उनसे अश्‍वमेघ यज्ञ करवाया। उस यज्ञ से इन्द्र पर लगा ब्रह्महत्या का दोष चार भागों मे बँट गया।
  1. एक भाग वृक्ष को दिया गया जिसने गोंद का रूप धारण कर लिया।
  2. दूसरे भाग को नदियों को दिया गया जिसने फेन का रूप धारण कर लिया।
  3. तीसरे भाग को पृथ्वी को दिया गया जिसने पर्वतों का रूप धारण कर लिया और
  4. चौथा भाग स्त्रियों को प्राप्त हुआ जिससे वे रजस्वला होने लगीं। "इस प्रकार इन्द्र का ब्रह्महत्या के दोष का निवारण हो जाने पर वे पुनः शक्‍ति सम्पन्न हो गये किन्तु इन्द्रासन पर नहुष के होने के कारण उनकी पूर्ण शक्‍ति वापस न मिल पाई। इसलिये उन्होंने अपनी पत्‍नी शची से कहा कि तुम नहुष को आज रात में मिलने का संकेत दे दो किन्तु यह कहना कि वह तुमसे मिलने के लिये सप्तर्षियों की पालकी पर बैठ कर आये। शची के संकेत के अनुसार रात्रि में नहुष सप्तर्षियों की पालकी पर बैठ कर शची से मिलने के लिये जाने लगा। सप्तर्षियों को धीरे-धीरे चलते देख कर उसने 'सर्प-सर्प' (शीघ्र चलो) कह कर अगस्त्य मुनि को एक लात मारी। इस पर अगस्त्य मुनि ने क्रोधित होकर उसे शाप दे दिया कि मूर्ख! तेरा धर्म नष्ट हो और तू दस हज़ार वर्षों तक सर्प योनि में पड़ा रहे। ऋषि के शाप देते ही नहुष सर्प बन कर पृथ्वी पर गिर पड़ा और देवराज इन्द्र को उनका इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो गया।"

Nachiketa ki Katha

यम के द्वार पर
'न देने योग्य गौ के दान से दाता का उल्टे अमंगल होता है' इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ॠषिकुमार नचिकेता अधीर हो उठे । उनके पिता वाजश्रवस-वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित नामक महान यज्ञ के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किन्तु ॠषि-ॠत्विज और सदस्यों की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं । पिता के मंगल की रक्षा के लिए अपने अनिष्ट की आशंका होते हुए भी उन्होंने विनयपूर्वक कहा-'पिताजी ! मैं भी आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं?[1]
उद्दालक ने कोई उत्तर नहीं दिया । नचिकेता ने पुन: वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये ।
'पिताजी ! मुझे किसे दे रहे हैं ? तीसरी बार पूछ्ने पर उद्दालक को क्रोध आ गया । चिढ़कर उन्होंने कहा- 'तुम्हें देता हूँ मृत्यु को। [2] नचिकेता विचलित नहीं हुए । परिणाम के लिए, वे पहले से ही प्रस्तुत थे । उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा -'पिताजी ! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है । आप अपने वचन की रक्षा के लिए यम सदन जाने की मुझे आज्ञा दें ।'
ॠषि सहम गये , पर पुत्र की सत्यपरायणता देखकर उसे यमपुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी । नचिकेता ने पिता के चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराज की पुरी के लिए प्रस्थित हो गये । यमराज काँप उठे । अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतय परिचित थे और ये तो अग्नितुल्य तेजस्वी ॠषिकुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति में उनके द्वार बिना अन्न-जल ग्रहण किए तीन रात बिता चुके थे । यम जलपूरित स्वर्ण-कलश अपने ही हाथों में लिए दौड़े । उन्होंने नचिकेता को सम्मानपूर्वक पाद्यार्घ्य देकर अत्यन्त विनय से कहा -'आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं, यह मेरा अपराध है । आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें ।
  • 'मृत्यो ! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जाएँ और जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें ।' पितृभक्त बालक ने प्रथम वर माँगा ।
'तथास्तु' यमराज ने कहा।

  • 'मृत्यो ! स्वर्ग के साधनभूत अग्नि को आप भलीभाँति जानते हैं । उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्त्व-देवत्व को प्राप्त होते है, मैं उसे जानना चाहता हूँ । यही मेरी द्वितीय वर-याचना है ।'
'यह अग्नि अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का साधन है । ' यमराज नचिकेता को अल्पायु, तीक्ष्ण बुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासु के रूप में पाकर प्रसन्न थे । उन्होंने कहा- 'यही विराट रूप से जगत की प्रतिष्ठा का मूल कारण है । इसे आप विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में स्थित समझिये ।'
  • उस अग्नि के लिए जैसी जितनी ईंटें चाहिए, वे जिस प्रकार रक्खी जानी चाहिए तथा यज्ञस्थली निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ और अग्निचयन करने की विधि बतलाते हुए अत्यन्त सन्तुष्ट होकर यम ने द्वितिय वर के रूप में कहा- 'मैने जिस अग्नि की बात आपसे कहीं, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिए ।'
  • 'हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये ।' [3] अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा । 'आप मृत्यु के देवता हैं ।' श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा- 'आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता । अत: मैं आपसे वहीं आत्मतत्त्व जानना चाहता हूँ । कृपापूर्वक बतला दीजिए ।'
यम झिझके । आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं । उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निश्चय से नहीं डिगा सके । यम ने भुवन मोहन अस्त्र का प्रयोग किया- सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकाल स्थायिनी भोग-सामग्रियों का प्रलोभन दिया, पर ॠषिकुमार अपने तत्त्व-सम्बंधी गूढ़ वर से विचलित नहीं हो सके ।
'आप बड़े भाग्यवान हैं ।' यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्तमयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि विवेक वैराग्यसम्पन्न पुरुष ही ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं । श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा- 'आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं ।'
'हे भगवन ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप देखते हैं मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये ।'
'आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है । न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है ।' नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यंन्त प्रसन्न हो गए थे । उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाया-'वह अजन्मा है , नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म-से -सूक्ष्म और महान से भी महान है । वह समस्त अनित्य शरीर में रहते हुए भी शरीररहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है । वह कण-कण में व्याप्त है । सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है । अग्नि उसी के भय से चलता है, सूर्य उसी के भय से तपता है, इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भय से दौड़ते हैं । जो पुरुष काल के गाल में जाने के पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं । शोकादि क्लेशों को पार कर परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं ।'
यम ने कहा, 'वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है।[4] वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट चुकी हैं और जिनके पवित्र अन्त:करण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती जो उसे पाने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं । आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उद्दालक पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध तपस्वियों का समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है ।

Dadhichi Ka Asthi Dan

  • एक बार देवराज इन्द्र के मन में अभिमान पैदा हो गया जिसके फलस्वरूप उसने देवगुरु बृहस्पति का अपमान कर दिया। उसके आचरण से क्षुब्ध होकर देवगुरु इन्द्रपुरी छोड़कर अपने आश्रम में चले गए। बाद में जब इन्द्र को अपनी भूल का आभास हुआ तो वह बहुत पछताया, क्योंकि अकेले देवगुरु बृहस्पति ही ऐसे व्यक्ति थे, जिनके कारण देवता दैत्यों के कोप से बचे रहते थे। पश्चाताप करता इन्द्र देवगुरु को मानने के लिए उनके आश्रम में पहुंचा। उसने हाथ जोड़कर देवगुरु को प्रणाम किया और कहा,'आचार्य। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया था। उस समय क्रोध में भरकर मैंने आपके लिए जो अनुचित शब्द कह दिए थे, मै उनके लिए आपसे क्षमा मांगता हुं। आप देवों के कल्याण के लिए पुनः इन्द्रपुरी लौट चलिए। हम सारे देव मिलकर आपकी भली-भांति सेवा…।' इन्द्र का शेष वाक्य अधूरा ही रह गया क्योंकि देवगुरु अपने तपोबल से अदृश्य हो चुके थे। इन्द्र ने उनकी बहुत खोज की किंतु जब देवगुरु का कुछ पता न चला तो वह थक-हार कर इन्द्रपुरी लौट गया।
  • दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने दैत्यों से कहा- 'दैत्यों! यही अवसर है जब तुम देवलोक पर अधिकार कर सकते हो। आचार्य बृहस्पति के चले जाने के बाद देवों की शक्ति आधी रह गई है। तुम लोग चाहो तो अब आसानी से देवलोक पर अधिकार कर सकते हो।' उचित अवसर देखकर दैत्यों ने अमरावती को चारों ओर से घेर लिया और चारों ओर मार-काट मचा दी। इन्द्र किसी तरह जान बचाकर वहां से भाग निकला और पितामह ब्रह्मा की शरण में पहुंच गया। वह करबध्य होकर ब्रह्मा जी से बोला,'पितामह, देवों की रक्षा कीजिए। दैत्यों ने अचानक हमला करके अमरावती में मार-काट मचा दी है। वे चुन-चुनकर देव योद्धाओं का वध कर रहे हैं। मैं किसी तरह जान बचाकर यहाँ तक पहुंचा हुँ।'
  • पितामह ब्रह्मा आचार्य बृहस्पति के देवलोक छोड़ जाने की बात सुन चुके थे। बोले, 'यह सब तुम्हारे अहंकार के कारण हुआ है, देवराज। अब भी यदि तुम आचार्य बृहस्पति को मना सको और उन्हें देवलोक में ले आओ तो वे दैत्यो पर विजय प्राप्त करने का कोई उपाय तुम्हें बता देंगे।' 'मै अपनी भूल पर बहुत पश्चाताप करता उन्हें खोजने के लिए गया था, पितामह। किंतु मेरे देखते ही अपने तपोबल से अदृश्य हो गए। इन्द्र ने कहा।
  • आचार्य तुमसे कुपित हैं, इन्द्र। ब्रह्मा जी ने कहा, 'अब जब तक तुम उनकी आराधना करके उन्हें स्वयं सम्मानपूर्वक देवलोक नहीं ले जाओगे, वे अमरावती नहीं आएंगे।'
'फिर क्या किया जाए, पितामह? आचार्य का कुछ पता-ठिकाना भी तो हमारे पास नहीं है। उन्हें खोजने में समय लगेगा। तब तक तो दैत्य संपूर्ण अमरावती को जलाकर राख कर देंगे।'
इन्द्र की बात सुनकर ब्रह्मा जी मे अपने नेत्र बंद कर लिए। वे चिंतन में डूब गए। कुछ देर बाद उन्होंने अपने नेत्र खोले और इन्द्र से कहा। 'इन्द्र! इस समय भूंमडल में सिर्फ एक ही व्यक्ति है जो तुम्हें इस आपदा से मक्ति दिला सकता है और वह है महर्षि त्वष्टा का महाज्ञानी पुत्र विश्वरूप। अगर तुम उसे अपना पुरोहित नियुक्त कर लो तो वह तुम्हें इस संकट से मुक्त करा देगा।' ब्रह्माजी ने उपाय बताया।
पितामह का परामर्श मानकर देवराज इन्द्र महर्षि विश्वरूप के पास पहुंचे। विश्वरूप के तीन मुख थे। पहले मुख से वे सोमवल्ली लता का रस निकालकर यज्ञ करते समय पीते थे। दूसरे मुख से मदिरा पान करते तथा तीसरे मुख से अन्न आदि भोजन का आहार करते थे। इन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया तो महर्षि ने पूछा, 'आज यहाँ कैसे आगमन हुआ, देवराज? आप किसी विपत्ति में तो नहीं फंस गए?'
'आपने ठीक अनुमान लगाया है मुनिश्रेष्ठ।' इन्द्र ने कहा, 'देवों पर इस समय बहुत बड़ी विपत्ति आई हुई है, दैत्यों ने अमरावती को घेर रखा है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है।' विश्वरूप मुस्कराए। बोले, 'यह तो देवों और दैत्यों का पुराना झगड़ा है, देवराज। दोनों ही महर्षि कश्यप की संतानें हैं। इसलिए कोई एक-दूसरे से छोटा नहीं बनना चाहता। तुम्हारे इस झगड़े में मैं क्या कर सकता हूं?'
'देवों को इस समय आपकी सहायता की आवश्यकता है मुनिश्रेष्ठ। सिर्फ आप ही उनका भय दूर कर सकते है।'
इस प्रकार इन्द्र ने जब विश्वरूप की बहुत अनुनय-विनय की तो विश्वरूप पिघल गए। उन्होंने देवों के यज्ञ का पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया। वे बोले, 'देवों की दुर्दशा देखकर ही मैंने आपके यज्ञ का होता बनना स्वीकार किया है, देवराज।' तत्पश्चात उन्होंने देवराज को नारायण कवच प्रदान करते हुए कहा, 'यह कवच ले जाओ देवराज। दैत्यों से युद्ध करते समय यह न सिर्फ तुम्हारी रक्षा करेगा बल्कि तुम्हें विजयश्री भी प्रदान करेगा।'
विश्वरुप से नारायण कवच प्रदान करके देवराज पुनः अमरावती पहुचें। उनके वहां पहुंचने से देवों में नए उत्साह का संचरण हो गया और वे पूरी शक्ति के साथ दैत्यों पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस बार इन्द्र के पास नारायण कवच होने के कारण दैत्य मैदान में नहीं ठहर सके। वे पराजित होकर भग खड़े हुए। विजयश्री देवताओं के हाथ लगी। युद्ध समाप्त होने पर देवराज विश्वरूप का आभार व्यक्त करने के लिए उनके पास पहुंचे। बोले, 'आपके कृपा से हमने दैत्यों पर विजय प्राप्त कर ली है, मुनिवर। अब हम एक ऐसा यज्ञ करना चाहते है जिसके फलस्वरूप देवलोक हमेशा के लिए दैत्यों के भय से मुक्त रह सके। और आप हमें वचन दे ही चुके है कि उस यज्ञ के होता आप होंगे, तो कृपा करके अब आप हमारे साथ चलिए।'
देवराज के अनुरोध पर विश्वरूप अमरावती पहुंचे। उन्होंने यज्ञ में आहुतियां डालनी आरंभ कर दीं। उसी समय एक दैत्य ब्राह्मण का वेश धारण कर महर्षि विश्वरूप के पास आ बैठा। उसने धीरे से महर्षि विश्वरूप से कहा, 'महर्षि! देवताओं का पक्ष लेकर आप जो यज्ञ दैत्यों के विनाश के लिए कर रहे, यह उचित नहीं हैं।'
'क्यों उचित नहीं है?' विश्वरूप ने पूछा।
'इसलिए उचित नहीं कि देव और दैत्य एक ही पिता की संताने हैं। आप भूल रहे है कि स्वंय आपकी माता जी एक दैत्य परिवार से हैं। क्या आप चाहेंगे कि आपका मातृकुल हमेशा के लिए नष्ट हो जाए?' बात विश्वरूप की समझ में आ गई। उन्होंने आहुतियां देते समय देवों के साथ-साथ दैत्यों का नाम भी लेना आरंभ कर दिया। यज्ञ समाप्त हुआ, लेकिन उसका कोई लाभ देवों को न मिला। इस पर देवराज इन्द्र ने विश्वरूप से कहा, 'मुनिवर! इतने बड़े यज्ञ का कोई अच्छा सुफल नहीं मिला। देवताओं की शक्ति में तो किंचित भी बदलाव नहीं आया। वे तो जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हैं।' तभी इन्द्र का एक गुप्तचर उनके पास पहुंचा उसने इन्द्र को बताया, 'यज्ञ का सुफल कैसे मिलता देवराज। मुनिवर देवों के साथ-साथ दैत्यों को भी तो आहुतियां देते रहे हैं। इस यज्ञ का जितना लाभ देवों को मिला है उतना ही दैत्यों को भी मिला हैं।' गुप्तचर के मुख से यह समाचार सुनकर इन्द्र गुस्से से भर उठे। उन्होंने तलवार निकाल ली और ॠषि विश्वरूप पर झपटे, 'ढोंगी ॠषि। तूने देवों के साथ विश्वासघात किया है। यज्ञ देवों ने कराया और तू आहुतियां अपने मातृकुल के लोगों को देता रहा। अब मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगा।' कहते हुए उसने तलवार के एक ही वार से विश्वरूप के तीनों सिर काट दिए।
इन्द्र द्वारा एक ब्राह्माण की यज्ञस्थल पर ही हत्या किए जाने की सर्वज्ञ निंदा होने लगी। देवों के साथ-साथ ॠषि-मुनि और उसे धिक्कारने लगे, 'इन्द्र तू हत्यारा है।–तूने ब्रह्महत्या की है, तेरे जैसे व्यक्ति को इन्द्र पद पर बने रहने का कोई अधिकार हक़ नहीं। तेरे लिए यही उचित है कि किसी कुएं या बावली में कूदकर अपने प्राणों का विसर्जन कर डाल।' आदि-आदि। नित्य प्रति की धिक्कार और प्रताड़ना सुनकर इन्द्र दुखी रहने लगा। उधर, जब यह समाचार महर्षि त्वष्टा तक पहुंचा तो वे बेहद क्रोधित हुए। गुस्से से दहाड़ते हुए बोले, 'इन्द्र की ऐसी हिम्मत कैसे हुए कि वह मेरे पुत्र का वध करके इन्द्रासन पर बैठा रहे। मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगा। मेरे पुत्र की हत्या करने का परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा।'
त्वष्टा उसी दिन यज्ञ करने के लिए बैठ गए। यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञ वेदी से एक पर्वत के समान आकार वाला दैत्य प्रकट हुआ। उसके एक हाथ में गदा और दूसरे में शंख था। उसने झुककर ॠषि कोप प्रणाम किया। ॠषि ने उसको नाम दिया—वृतासुर।
'आज्ञा दीजिए ॠषिवर?' वृतासुर ने सिर झुकाकर कहा।
'वृतासुर। तुम तत्काल अमरावती जाओ और कपटी इन्द्र के साथ-साथ समस्त देवताओं का विनाश कर दो।' महर्षि त्वष्टा ने क्रोध से कांपते हुए आदेश दिया। त्वष्टा का आदेश पाते ही वृतासुर वायु वेग से देवलोक की ओर उड़ चला।
वृतासुर ने अमरावती में पहुंचकर देवों का विध्वंस करना शुरू कर दिया। जो भी सामने आता, वह निःसंकोच होकर उसका वध कर डालता। उसने अमरावती में ऐसा कोहराम मचाया के देवता त्राहि-त्राहि कर उठे। इन्द्र अपने ऐरावत पर चढ़कर उसके सामने पहुंचा और उस पर व्रज प्रहार किया, किंतु वृतासुर ने एक ही झटके में उसके हाथ से व्रज छीनकर दूर फेंक दिया। इस पर इन्द्र ने उस पर आग्नेय अस्त्रों से आक्रमण किया, किंतु उनका किंचित भी असर वृतासुर पर न हुआ। किसी खिलौने की तरह उसने इन्द्र के हाथ से उसका धनुष छीन लिया और उसे तोड़कर एक ओर फेंक दिया। फिर वह अपना भयंकर मुख खोलकर इन्द्र को खाने के लिए उसकी ओर झपटा। यह देखकर इन्द्र भयभीत हो गया और ऐरावत से कूदकर अपनी जान बचाने के लिए भाग निकला। पीछे वृतासुर अपने भयंकर अट्टहासों से अमरावती को गुंजाता रहा। देवराज भागकर सीधे पहुंचे विष्णुलोक में भगवान विष्णु के पास।
'रक्षा कीजिए देव। देवताओं को बचाइए।' उसने आर्त्त स्वर में भगवान से विनती की, 'देवों को वृतासुर के कोप से बचाइए अन्यथा वह समस्त देवजाति का विनाश कर डालेगा।' यह सुनकर भगवान विष्णु ने भी उसे धिक्कारा। कहा, 'इन्द्र। एक ब्राह्मण, और वह भी ऐसा जो तुम्हारे यज्ञ का संचालन कर रहा हो, उसका यज्ञस्थल पर ही वध करके तुमने समस्त देवजाति को कलंकित कर दिया। तुमने अक्षम्य अपराध किया है। महर्षि त्वष्टा मे तुम्हारे लिए उचित ही दंड का निर्णय किया है।'
'मुझे अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हो रहा है, प्रभु। मैं उस समय क्रोध में अंधा हो रहा था, इसलिए ब्रह्महत्या जैसा पाप कर बैठा। मुझे क्षमा कर दीजिए और मुझे उस महाभयंकर दैत्य से मुक्ति दिलाइए।' इन्द्र ने शर्मिंदगी भरे स्वर में कहा।
'देवेंद्र्।' श्रीहरि बोले, 'इस समय मैं तो क्या स्वंय भगवान शिव अथवा ब्रह्मा जी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। तुम्हारी रक्षा तो पृथ्वी पर एक ही व्यक्ति कर सकता है।'
'वह कौन है, देव?'
'महर्षि दधीचि।' विष्णु बोले, 'सिर्फ वे ही तुम्हारी रक्षा कर सकते हैं। तुम महर्षि दधीचि के आश्रम में जाओ और उन्हें प्रसन्न करके किसी तरह उनके शरीर की हड्डियां प्राप्त कर लो। फिर उन हड्डियों से व्रज बनाकर यदि तुम वृतासुर से युद्ध करोगे तो विजयश्री तुम्हें ही मिलेगी।'
भगवान विष्णु का परामर्श मानकर इन्द्र दधीचि के आश्रम में पहुंचा। महर्षि दधीचि उस समय समाधि लगाए बैठे थे। उनकी कामधेनु उनके निकट खड़ी थी। इन्द्र महर्षि की समाधि भंग होने की प्रतीक्षा करने लगा। फिर जब महर्षि ने अपनी समाधि भंग की तो उनकी दृष्टि करबद्ध खड़े इन्द्र पर पड़ी। महर्षि ने हंसते हुए पूछा, 'देवेंद्र! आज इस मृत्युलोक में तुम्हारा आगमन क्यों कर हुआ? देवलोक में सब कुशल से तो हैं?'
'कुशलता कैसी महर्षि।' इन्द्र ने शर्मसार होते हुए कहा, 'देवों के दुर्दिन आ गए हैं। वृतासुर के भय से देव अमरावती छोड़कर जंगलों और गिरि कंदराओं में छिपते फिर रहे हैं।'
फिर महर्षि के पूछने पर इन्द्र ने सारी बातें उन्हें बता दीं। सुनकर दधीचि बोले, 'यह तो बड़ी अशुभ बातें बताईं तुमने, देवेंद्र। अब इनका निराकरण कैसे हो?'
'महर्षि! मैं भगवान विष्णु के पास गया था।' इन्द्र बोला, 'उन्होंने परामर्श दिया है कि यदि आप प्रसन्न होकर मुझे अपनी हड्डियों का दाम दे दें और उनसे व्रज बनाकर यदि वृतासुर से युद्ध किया जाए तो वह दैत्य उस व्रज के प्रहार से मर सकता है। हे ॠषिश्रेष्ठ। देवों पर कृपा करके मुझे अपनी अस्थियों का दान दे दीजिए।'
'देवेंद्र!' महर्षि दधीचि बोले, 'यदि मेरी अस्थियों से मानव और देव जाति का कुछ हित होता है मैं सहर्ष अपनी अस्थियों का दान देने के लिए तैयार हूं।'
तत्पश्चात अपने शरीर पर मिष्ठान का लेपन करके महर्षि समाधिस्थ होकर गए। कामधेनु ने उनके शरीर को चाटना आरंभ कर दिया। कुछ देर में महर्षि के शरीर की त्वचा, मांस और मज्जा उनके शरीर से विलग हो गए। मानव देह के स्थान पर सिर्फ उनकी अस्थियां ही शेष रह गईं। इन्द्र ने उन अस्थियों को श्रद्धापूर्वक नमन किया और उन्हें ले जाकर उन हड्डियों से ‘तेजवान’ नामक व्रज बनाया। तत्पश्चात उस व्रज के बल पर उसने वृतासुर को ललकारा। दोनों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन वृतासुर ‘तेजवान’ व्रज के आगे देर तक टिका न रह सका। इन्द्र ने व्रज प्रहार करके उसका वध कर डाला। उसके भय से मुक्त हो गए।