Monday 5 December 2011

Bal Kahaniyan

पश्चात्ताप
 कर्णवास का एक पंडित महर्षि दयानंद सरस्वती को प्रतिदिन गालियाँ दिया करता था, पर महर्षि शांत भाव से उन्हें सुनते रहते और उसे कुछ भी उत्तर न देते।
एक दिन जब वह गाली देने नहीं आया तब महर्षि ने लोगों से उसके न आने का कारण पूछा। लोगों ने बताया, "वह बीमार है।"
महर्षि फल और औषध लेकर उसके घर पहुँचे। वह महर्षि को देखकर उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने असद व्यवहार के लिए क्षमा माँगने लगा। इसके बाद उसका गाली देना सदा के लिए छूट गया।
पुरानी नाक
एक ग़रीब मनुष्य ने देवता से वर प्राप्त किया था। देवता संतुष्ट हो कर बोले तुम ये पासा लो। इस पाँसे को जिन किन्हीं तीन कामनाओं से तीन बार फेंकोगे वे तीनों पूरी हो जाएँगी।
वह आनंदोल्लासित हो घर जाकर अपनी स्त्री के साथ परामर्श करने लगा क्या वर माँगना चाहिए। स्त्री ने कहा धन दौलत माँगो किंतु पति ने कहा देखो हम दोनों की नाक चपटी है उसे देख कर लोग हमारी बड़ी हँसी करते हैं। अत: प्रथम बार पाँसा फेंक कर सुंदर नाक की प्रार्थना करनी चाहिए। किंतु स्त्री का मत वैसा नहीं था। अंत में दोनों में खूब तर्क प्रारंभ हुआ। आख़िर पति ने क्रोध में आकर यह कह कर पाँसा फेंक दिया - हमें सुंदर नाक मिले, सुंदर नाक मिले, सुंदर नाक मिले।
आश्चर्य! जैसे ही उसने पासा फेंका वैसे ही उसके शरीर में तीन नाकें उत्पन्न हो गईं। तब उसने देखा यह तो विपत्ति आ पड़ी। फिर उसने दूसरी बार पासा फेंक कर कहा नाक चली जाएँ। इस बार सभी नाकें चली गईं। साथ ही अपनी नाक भी चली गई।
अब शेष रहा एक वर, तब उन्होंने सोचा यदि इस बार पासा फेंक कर चपटी नाक के बदले में सुंदर नाक प्राप्त करें तो लोग अवश्य ही चपटी नाक के स्थान पर अच्छी नाक देख कर उसके बारे में पूछताछ करेंगे। फिर तो हमें सभी बातें बतानी पड़ेगी। तब वे हमें मूर्ख समझ कर हमारी और भी हँसी उडाएँगे। कहेंगे कि ये लोग ऐसे तीन वरों को प्राप्त कर के भी अपनी अवस्था की उन्नति नहीं कर सके। यह सोच कर उन्होंने पासा फेंक कर अपनी पुरानी चपटी नाक ही माँग ली।
ठीक ही है समझबूझ कर काम न करने वाले लोग अवसरों को अपने हाथ से यों ही गँवा देते हैं। उनका लाभ नहीं उठा पाते।
प्रेमचंद की गाय
-मानस त्रिपाठी
उन दिनों प्रसिद्ध उपन्यास-लेखक मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर में अध्यापक थे। उन्होंने अपने यहाँ गाय पाल रखी थी। एक दिन चरते-चरते उनकी गाय वहाँ के अंग्रेज़ जिलाधीश के आवास के बाहरवाले उद्यान में घुस गई। अभी वह गाय वहाँ जाकर खड़ी ही हुई थी कि वह अंग्रेज़ बंदूक लेकर बाहर आ गया और उसने ग़ुस्से से आग बबूला होकर बंदूक में गोली भर ली।
उसी समय अपनी गाय को खोजते हुए प्रेमचंद वहाँ पहुँच गए।
अंग्रेज़ ने कहा कि 'यह गाय अब तुम यहाँ से ले नहीं जा सकते। तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुमने अपने जानवर को मेरे उद्यान में घुसा दिया। मैं इसे अभी गोली मार देता हूँ, तभी तुम काले लोगों को यह बात समझ में आएगी कि हम यहाँ हुकूमत कर रहे हैं।' और उसने भरी बंदूक गाय की ओर तान दी।
प्रेमचंद ने नरमी से उसे समझाने की कोशिश की, 'महोदय! इस बार गाय पर मेहरबानी करें। दूसरे दिन से इधर नहीं आएगी। मुझे ले जाने दें साहब। यह ग़लती से यहाँ आई।' फिर भी अंग्रेज़ झल्लाकर यही कहता रहा, 'तुम काला आदमी ईडियट हो - हम गाय को गोली मारेगा।' और उसने बंदूक से गाय को निशान बनाना चाहा।
प्रेमचंद झट से गाय और अंग्रेज़ जिलाधीश के बीच में आ खड़े हुए और ग़ुस्से से बोले, 'तो फिर चला गोली। देखूँ तुझमें कितनी हिम्मत है। ले। पहले मुझे गोली मार।' फिर तो अंग्रेज़ की हेकड़ी हिरन हो गई। वह बंदूक की नली नीची कर कहता हुआ अपने बंगले में घुस गया।
बच्चे की सीख
-संतोष भटनागर
बचपन से ही मुझे अध्यापिका बनने तथा बच्चों को मारने का बड़ा शौक था। अभी मैं पाँच साल की ही थी कि छोटे-छोटे बच्चों का स्कूल लगा कर बैठ जाती। उन्हें लिखाती पढ़ाती और जब उन्हें कुछ न आता तो खूब मारती।
मैं बड़ी हो कर अध्यापिका बन गई। स्कूल जाने लगी। मैं बहुत प्रसन्न थी कि अब मेरी पढ़ाने और बच्चों को मारने की इच्छा पूरी हो जाएगी। जल्दी ही स्कूल में मैं मारने वाली अध्यापिका के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

एक दिन श्रेणी में एक नया बच्चा आया। मैंने बच्चों को सुलेख लिखने के लिए दिया था। बच्चे लिख रहे थे। अचानक ही मेरा ध्यान एक बच्चे पर गया जो उल्टे हाथ से बड़ा ही गंदा हस्तलेख लिख रहा था। मैंने आव देखा न ताव, झट उसके एक चाँटा रसीद कर दिया। और कहा, "उल्टे हाथ से लिखना तुम्हें किसने सिखाया है और उस पर इतनी गंदी लिखाई!"

इससे पहले कि बच्चा कुछ जवाब दे, मेरा ध्यान उसके सीधे हाथ की ओर गया, जिसे देख कर मैं वहीं खड़ी की खड़ी रह गयी क्योंकि उस बच्चे का दायाँ हाथ था ही नहीं। किसी दुर्घटना में कट गया था।

यह देख कर मेरी आँखों में बरबस ही आँसू आ गए। मैं उस बच्चे के सामने अपना मुँह न उठा सकी। अपनी इस गलती पर मैंने सारी कक्षा के सामने उस बच्चे से माफ़ी माँगी और यह प्रतिज्ञा की कि कभी भी बच्चों को नहीं मारूँगी।
इस घटना ने मुझे ऐसा सबक सिखाया कि मेरा सारा जीवन ही बदल गया।
बुद्धिमान कौन
- राजकुमार पासवान
वजीर के अवकाश लेने के बाद बादशाह ने वजीर के रिक्त पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार बुलवाए। कठिन परीक्षा से गुज़र कर 3 उम्मीदवार योग्य पाए गए।
तीनों उम्मीदवारों से बादशाह ने एक-एक कर एक ही सवाल किया, "मान लो मेरी और तुम्हारी दाढ़ी में एकसाथ आग लग जाए तो तुम क्या करोगे?"
"जहाँपनाह, पहले मैं आप की दाढ़ी की आग बुझाऊँगा," पहले ने उत्तर दिया।
दूसरा बोला, "जहाँपनाह पहले मैं अपनी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा।"
तीसरे उम्मीदवार ने सहज भाव से कहा, "जहाँपनाह, मैं एक हाथ से आपकी दाढ़ी की आग बुझाऊँगा और दूसरे हाथ से अपनी दाढ़ी की।"
इस पर बादशाह ने फ़रमाया, "अपनी ज़रूरत नज़रंदाज़ करने वाला नादान है। सिर्फ़ अपनी भलाई चाहने वाला स्वार्थी है। जो व्यक्तिगत जिम्मेदारी निभाते हुए दूसरे की भलाई करता है। यही बुद्धिमान है।"
इस तरह बादशाह ने वजीर के पद पर तीसरे उम्मीदवार की नियुक्ति कर दी।
बेहतर भविष्य का संकरा मुहाना
- सुधा
एक शिक्षण संस्थान की यह परंपरा थी - अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों में जो योग्यतम आठ-दस होते थे, उन्हें देश की औद्योगिक संस्थाएँ नियुक्त कर लेती थीं। उस साल भी वही हुआ। ऊपर के नौ लड़के ऊँची पद-प्रतिष्ठा वाली नौकरियाँ पाकर खुशी-खुशी चले गए। लेकिन उनके बीच का एक लड़का जो चुने गए साथियों से कम नहीं था, रह गया।
चूँकि वह बहुत परिश्रमी था और अपने संस्थान को उसकी सेवा से लाभ ही होता इसलिए उसे अस्थायी तौर पर कुछ भत्ता दे कर काम पर लगा लिया गया। फिर भी अपने साथियों की तुलना में उसकी यह नियुक्ति आर्थिक दृष्टि से बड़ी मामूली थी। वह उदास रहने लगा। लोग भी उसके भाग्य को दोष देने लगे थे।
लेकिन यह स्थिति अधिक दिन नहीं रही। एक बहुत नामी औद्योगिक संस्था ने अचानक उस शिक्षण संस्थान से संपर्क कर जैसे व्यक्ति की माँग की, यह युवक पूरी तरह उसके अनुकूल सिद्ध हुआ।उसे अपनी योग्यता के अनुरूप काम और वेतन मिला, बात इतनी ही नहीं थी, उसकी यह नियुक्ति अपने साथियों की तुलना में बहुत ऊँची भी थी। अर्थ और
सामाजिक प्रतिष्ठा - दोनों ही दृष्टि से वह उन सबसे श्रेष्ठ हो गया था।इसी तरह कभी-कभी अनुकूल समय के लिए प्रतीक्षा की घड़ियाँ आया करती हैं। अक्सर ही जिसे लोग भाग्य का दोष मान बैठते हैं, वह होता है एक बेहतर भविष्यका संकरा मुहाना।
महानता के लक्षण
-वागीश
एक बालक नित्य विद्यालय पढ़ने जाता था। घर में उसकी माता थी। माँ अपने बेटे पर प्राण न्योछावर किए रहती थी, उसकी हर माँग पूरी करने में आनंद का अनुभव करती। पुत्र भी पढ़ने-लिखने में बड़ा तेज़ और परिश्रमी था। खेल के समय खेलता, लेकिन पढ़ने के समय का ध्यान रखता।
एक दिन दरवाज़े पर किसी ने - 'माई! ओ माई!' पुकारते हुए आवाज़ लगाई तो बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए द्वार पर गया, देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया काँपते हाथ फैलाए खड़ी थी।
उसने कहा, 'बेटा! कुछ भीख दे दे।'
बुढ़िया के मुँह से बेटा सुनकर वह भावुक हो गया और माँ से आकर कहने लगा, 'माँ! एक बेचारी गरीब माँ मुझे बेटा कहकर कुछ माँग रही है।'
उस समय घर में कुछ खाने की चीज़ थी नहीं, इसलिए माँ ने कहा, 'बेटा! रोटी-भात तो कुछ बचा नहीं है, चाहे तो चावल दे दो।'
पर बालक ने हठ करते हुए कहा - 'माँ! चावल से क्या होगा? तुम जो अपने हाथ में सोने का कंगन पहने हो, वही दे दो न उस बेचारी को। मैं जब बड़ा होकर कमाऊँगा तो तुम्हें दो कंगन बनवा दूँगा।'
माँ ने बालक का मन रखने के लिए सच में ही सोने का अपना वह कंगन कलाई से उतारा और कहा, 'लो, दे दो।'
बालक खुशी-खुशी वह कंगन उस भिखारिन को दे आया। भिखारिन को तो मानो एक ख़ज़ाना ही मिल गया। कंगन बेचकर उसने परिवार के बच्चों के लिए अनाज, कपड़े आदि जुटा लिए। उसका पति अंधा था। उधर वह बालक पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान हुआ, काफ़ी नाम कमाया।
एक दिन वह माँ से बोला, 'माँ! तुम अपने हाथ का नाप दे दो, मैं कंगन बनवा दूँ।' उसे बचपन का अपना वचन याद था।
पर माता ने कहा, 'उसकी चिंता छोड़। मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूँ कि अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे। हाँ, कलकत्ते के तमाम ग़रीब बालक विद्यालय और चिकित्सा के लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनके लिए तू एक विद्यालय और एक चिकित्सालय खुलवा दे जहाँ निशुल्क पढ़ाई और चिकित्सा की व्यवस्था हो।' माँ के उस पुत्र का नाम ईश्वरचंद्र विद्यासागर।
रास्ते की रुकावट
-रश्मि रेखा चातोंबा
विद्यार्थियों की एक टोली पढ़ने के लिए रोज़ाना अपने गाँव से 6-7 मील दूर दूसरे गाँव जाती थी। एक दिन जाते-जाते अचानक विद्यार्थियों को लगा कि उन में एक विद्यार्थी कम है। ढूँढने पर पता चला कि वह पीछे रह गया है। उसे एक विद्यार्थी ने पुकारा, "तुम वहाँ क्या कर रहे हो?" उस विद्यार्थी ने वहीं से उत्तर दिया, "ठहरो, मैं अभी आता हूँ।"
यह कह कर उस ने धरती में गड़े एक खूँटे को पकड़ा। ज़ोर से हिलाया, उखाड़ा और एक ओर फेंक दिया फिर टोली में आ मिला।
उसके एक साथी ने पूछा, "तुम ने वह खूँटा क्यों उखाड़ा? इसे तो किसी ने खेत की हद जताने के लिए गाड़ा था।"
इस पर विद्यार्थी बोला, "लेकिन वह बीच रास्ते में गड़ा हुआ था। चलने में रुकावट डालता था। जो खूँटा रास्ते की रुकावट बने, उस खूँटे को उखाड़ फेंकना चाहिए।"
वह विद्यार्थी और कोई नहीं, बल्कि लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
लालच
-मानस त्रिपाठी
रेलवे स्टेशन पर मालगाड़ी से शीरे के बड़े-बड़े ड्रम उतारे जा रहे थे। उन ड्रमों से थोड़ा-थोड़ा शीरा मालगाड़ी के पास नीचे ज़मीन पर गिर रहा था। जहाँ शीरा गिरा था मक्खियाँ आकर बैठ गई और शीरा चाटने लगीं। ऐसा करने से उनके छोटे-छोटे मुलायम पंख उस शीरे में ही चिपक गए, फिर भी मक्खियों ने उधर ध्यान न देकर शीरे का लालच न छोड़ा और काफ़ी देर तक शीरा चाटने में ही मगन रहीं।
कुछ समय बाद वहाँ एक कुत्ता भी आ गया। कुत्ते को देखकर वे मक्खियाँ डरीं और वहाँ से उड़ने की कोशिश करने लगीं, परंतु पंख शीरे में चिपक जाने के कारण वे उड़ नहीं सकीं और शीरे के साथ-साथ वे सब भी कुत्ते का भोजन बनती गई। उसी समय उड़ते-उड़ते और कई मक्खियाँ भी उस शीरे पर आकर बैठती गई। उन सबके पंख भी शीरे में चिपक गए और वे भी उस कुत्ते का भोजन बन गई। उन्होंने पहले से पड़ी मक्खियों की दुर्गति और विनाश देखकर भी उनसे कोई सीख नहीं ली, जबकि वही विनाश उनकी भी प्रतीक्षा कर रहा था।
यही दशा इस संसार की है। मनुष्य देखता है कि लोभ-मोह किस तरह आदमी को दुर्गति में, संकट में डालता है, फिर भी वह दुनिया के इन दुर्गुणों से बचने की कोशिश कम ही करता है। परिणामत: अनेक मनुष्यों की भी वही दुर्गति होती है, जो उन लोभी मक्खियों की हुई।
विदेशी तिरंगा
- जया मुखर्जी

हर स्वतंत्रता दिवस पर मेरे दादाजी हमारे घर की छत पर तिरंगा फहराया करते थे और हम राष्ट्रीय गीत गाया करते थे। १९९७ में १५ अगस्त के दिन मैंने यह तय किया कि मेरी तीन साल की बेटी को अपने घर में तिरंगा फहराकर स्वदेश भक्ति के बारे में सचेत किया जाय।

हमने तिरंगा ख़रीदने का निश्चय किया। काग़ज़ के बने छोटे-छोटे तिरंगे झंडे उस समय भी बेचे जाते थे लेकिन मैं कपड़े का बुना हुआ झंडा अपने घर में फहराना चाहती थी। कैंप की एक भी दुकान में मुझे कपड़े का बुना हुआ तिरंगा नहीं मिला। एक बुजुर्ग ने बताया कि कपड़े का बुना हुआ तिरंगा झंडा सिर्फ़ स्कूल, कॉलेज, और सरकारी दफ़्तरों में ही लहराया जाता है। व्यक्तिगत स्थानों जैसे घरों में झंडा फहराना कानून के ख़िलाफ़ था। पुणे में भी मैंने कभी किसी घर में तिरंगे को लहराते नहीं देखा था। सीधे, सत्यवादी और सरल जीवन व्यतीत करने वाले मेरे दादाजी ने इन क़ानूनों और अपने उसूलों को तोड़ना कभी सही नहीं समझा लेकिन हमें हमेशा इस बात को लेकर प्रोत्साहित ज़रूर करते रहते थे। मैंने भी अपने दादाजी की तरह इस बात को लेकर कभी पहल नहीं की मुझे लगा कि इस बात के दूसरे पक्ष को परखने की हिम्मत और उचित अधिकार मुझमें नहीं थे।

१९९८ में १५ अगस्त को एक साल अधिक बड़ी और बुद्धिमान, मैंने अपने दादाजी के देशभक्ति के प्रोत्साहन पर ग़ौर करना ज़्यादा उचित समझा। इस बार मैंने शहर के दूसरे सिरे से तिरंगे की खोज शुरू की, हर जगह जवाब वही था। तभी लौटते समय एक इमारत की चौथी मंज़िल की बालकनी में तिरंगा लहराता हुआ दिखाई दिया। मैंने ऊपर जा कर मालिक से पूछा कि यह तिरंगा उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। उनके जवाब से मैं हैरान रह गई। उन्होंने कहा, "विदेश से।"

ज़रा सोचिए! देश की आज़ादी की ५० वीं सालगिरह पर हम अपने फ़ोन से यंत्रवत तरीके से वंदेमातरम कहकर बधाई देने से लेकर बंकिम चंद्र चटर्जी के वंदेमातरम को ए. आर. रहमान की धुनों में रूपांतरित कर टी.वी. के हर चैनल दिखाते और सार्वजनिक स्पीकरों पर बजाते हैं, बोर्डो से लेकर बसों, ऑटो रिक्शा और लारियों को 'मेरा भारत महान' से पोत देते हैं, इस दिन सुबह से अपने सारे नेता भारत की स्वतंत्रता के गुणगान करते नज़र आते हैं, वहीं ब‌ड़ों की दी हुई सीख और गर्व की परंपरा को निभाने के लिए यदि हम हमारा तिरंगा फहराना चाहते हैं तो उसे ख़रीदने क्या हमें विदेश जाना होगा?

एक मित्र ने कहा था कि विश्व के अधिकतर देशों में हर व्यक्ति अपने घर में एक झंडा ज़रूर रखता है और अपने राष्ट्रीय महत्व के अवसरों पर उसे फहराने में गर्व अनुभव करता है जबकि भारतीय स्वदेश में रहकर भी अपने तिरंगे को घर में रखना ज़रूरी ही नहीं समझते। हम भारतीय जो विदेशों की सैर को गर्व से जताने से नहीं चूकते, उन्होंने कभी अपने ही भारत की सैर कर उसे जानने की कितनी कोशिश की है? हम जब विदेशों की सैर करते हैं तब कुछ यादगार चीज़ें वहाँ से लाते हैं लेकिन आज ग़ौर करने का समय आया है कि हम कितने भारतीयों के घरों में कोणार्क चक्र की प्रतिकृति है? जब हम विदेशी झंडों और विश्वविद्यालयों के चिह्नों से अंकित कपड़े गर्व के साथ धारण करते है तो क्या हम उसी शौक से अपनी मातृभूमि के नारों से सजे कपड़े पहनते हैं? सालोंसाल भारत में रहने वाले विदेशी अपने अंग्रेज़ी भाषा बोलने की लहज़े को नहीं बदलते, वहीं थोड़े सालों में अमरीका जाकर हम भारतीय विदेशी लहज़े में हिंदी बोलना सीख कर लौटते हैं ऐसा जब किसी विदेशी ने ही मुझसे कहा होगा तो आप सोच सकते हैं, मैंने कैसे महसूस किया होगा।

बाद में, काफ़ी छानबीन के बाद इस पुणे शहर में हमें एक छोटी-सी दुकान में कपड़े से बुना हुआ तिरंगा मिल ही गया। इस तरह १५ अगस्त १९९८ को हमने अपने घर में तिरंगा फहराया और राष्ट्रीय गीत गाया तब मेरी चार साल की बेटी ने इसे खुशी से देखा और शायद गर्व भी महसूस किया कि भारत का झंडा उसके घर में फहर रहा था।
विश्वास
-पंकज त्रिवेदी

एक डाकू था जो साधू के भेष में रहता था। वह लूट का धन गरीबों में बाँटता था। एक दिन कुछ व्यापारियों का जुलूस उस डाकू के ठिकाने से गुज़र रहा था। सभी व्यापारियों को डाकू ने घेर लिया। डाकू की नज़रों से बचाकर एक व्यापारी रुपयों की थैली लेकर नज़दीकी तंबू में घूस गया। वहाँ उसने एक साधू को माला जपते देखा। व्यापारी ने वह थैली उस साधू को संभालने के लिए दे दी। साधू ने कहा की तुम निश्चिन्त हो जाओ।डाकूओं के जाने के बाद व्यापारी अपनी थैली लेने वापस तंबू में आया। उसके आश्चर्य का पार न था। वह साधू तो डाकूओं की टोली का सरदार था। लूट के रुपयों को वह दूसरे डाकूओं को बाँट रहा था। व्यापारी वहाँ से निराश होकर वापस जाने लगा मगर उस साधू ने व्यापारी को देख लिया। उसने कहा; "रूको, तुमने जो रूपयों की थैली रखी थी वह ज्यों की त्यों ही है।"
अपने रुपयों को सलामत देखकर व्यापारी खुश हो गया। डाकू का आभार मानकर वह बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद वहाँ बैठे अन्य डाकूओं ने सरदार से पूछा कि हाथ में आये धन को इस प्रकार क्यों जाने दिया। सरदार ने कहा; "व्यापारी मुझे भगवान का भक्त जानकर भरोसे के साथ थैली दे गया था। उसी कर्तव्यभाव से मैंने उन्हें थैली वापस दे दी।"
किसी के विशवास को तोड़ने से सच्चाई और ईमानदारी हमेशा के लिए शक के घेरे में आ जाती है।
स्वर्ग और नरक
-मानस त्रिपाठी
एक युवक था। वह बंदूक और तलवार चलाना सीख रहा था। इसलिए वह यदा-कदा जंगल जाकर खरगोश, लोमड़ी और पक्षियों आदि का शिकार करता। शिकार करते-करते उसे यह घमंड हो गया कि उसके जैसा निशानेबाज़ कोई नहीं है और न उसके जैसा कोई तलवार चलाने वाला। आगे चलकर वह इतना घमंडी हो गया कि किसी बड़े के प्रति शिष्टाचार भी भूल गया।

उसके गाँव के बाहर कुटिया में एक संत रहते थे। वह एक दिन उनके पास पहुँचा। न उन्हें प्रणाम किया और न ही अपना परिचय दिया। सीधे उनके सामने पड़े आसन पर बैठ गया और कहने लगा, 'लोग बेकार में स्वर्ग-नरक में विश्वास करते हैं?

संत ने उससे पूछा, 'तुम तलवार साथ में क्यों रखते हो?'
उसने कहा, 'मुझे सेना में भर्ती होना है, कर्नल बनना है।'
इस पर संत ने कहा, 'तुम्हारे जैसे लोग सेना में भर्ती किए जाते हैं? पहले अपनी शक्ल शीशे में जाकर देख लो।'

यह सुनते ही युवक ग़ुस्से में आ गया और उसने म्यान से तलवार निकाल ली। तब संत ने फिर कहा, 'वाह! तुम्हारी तलवार भी कैसी है? इससे तुम किसी भी बहादुर आदमी का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि वीरों की तलवार की चमक कुछ और ही होती है।'

फिर तो युवक गुस्से से आग-बबूला हो गया और संत को मारने के लिए झपटा। तब संत ने शांत स्वर से कहा, 'अब तुम्हारे लिए नरक का दरवाज़ा खुल गया।'

यह सुनते ही युवक की अक्ल खुल गई और उसने तलवार म्यान में रख ली। अब वह सर झुककर संत के सामने खड़ा था और अपराधी जैसा भाव दिखा रहा था। इस पर संत ने कहा, 'अब तुम्हारे लिए स्वर्ग का दरवाज़ा खुल गया।'
स्वाभिमान
-गिरिजा 'सुधा'
कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति का एक पत्र पाकर पं. मदन मोहन मालवीय असमंजस में पड़ गए। वे बुदबुदाए - "अजीब प्रस्ताव रखा है यह तो उन्होंने। क्या कहूँ, क्या लिखूँ?"

पास बैठे एक सज्जन ने पूछा, "ऐसी क्या अजीब बात लिखी है पंडित जी उन्होंने।"

वे मुसकुराकर बोले, "कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय, मेरी सनातन उपाधि छीन कर एक नई उपाधि देना चाहते हैं।" वे लिखते हैं - यह कहकर वे पत्र पढ़ने लगे। उस पत्र में लिखा था - "कलकत्ता यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट की सम्मानित उपाधि से अलंकृत करके अपने आपको गौरवान्वित करना चाहती है। हम भी गौरवान्वित हो सकेंगे। आप अपनी बेशकीमती स्वीकृति से शीघ्र ही सूचित करने की कृपा कीजिए।"

"प्रस्ताव तो उचित ही है। आप ना मत कर दीजिएगा मालवीय जी महाराज, यह तो हम वाराणसी वासियों के लिए विशेष गर्व एवं गौरव की बात होगी।" तभी एक अन्य सज्जन ने हाथ जोड़ कर कहा उनसे।

"अरे बहुत ही भोले हो भैय्ये तुम तो। वाराणसी के गौरव में वृद्धि नहीं होगी। यह तो वाराणसी के पांडित्य को जलील करने का प्रस्ताव है। बनारस के पंडितों को अपमानित करनेवाली तजवीज़ है यह।" बहुत ही व्यथित मन से मालवीय जी बोले।

अगले ही क्षण उन्होंने उस पत्र का उत्तर लिखा - "मान्य महोदय! आपके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद। मेरे उत्तर को अपने प्रस्ताव का अनादर मत मानिएगा। मेरा पक्ष सुनकर आप उस पर पुनर्विचार ही कीजिएगा। मुझको आपका यह उपाधि वितरण प्रस्ताव अर्थहीन लग रहा है। मैं जन्म और कर्म दोनों से ही ब्राह्मण हूँ। किसी भी ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप जीवन बिताता है। 'पंडित' से बढ़कर अन्य कोई भी उपाधि नहीं हो सकती । मैं 'डाक्टर मदन मोहन मालवीय' कहलाने की अपेक्षा 'पंडित मदन मोहन मालवीय' कहलवाना अधिक पसंद करूँगा। आशा है आप इस ब्राह्मण के मन की भावना का आदर करते हुए इसे 'डाक्टर' बनाने का विचार त्याग कर 'पंडित' ही बना रहने देंगे।"

वृद्धावस्था में भी मालवीय जी तत्कालीन वाइसराय की कौंसिल के वरिष्ठ काउंसलर थे। उनकी गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओं के बावजूद वाइसराय उनकी मेधा, सौजन्य, सहज पांडित्य आदि के क़ायल थे। एक बार एक ख़ास भेंट के कार्यक्रम के दौरान वाइसराय ने कहा - "पंडित मालवीय, हिज़ मेजेस्टी की सरकार आपको 'सर' की उपाधि से अलंकृत करना चाहती है। आप इस उपाधि को स्वीकार करके इस उपाधि का गौरव बढ़ाने में हमारी मदद करें।"

मालवीय जी ने तुरंत मुसकुराकर उत्तर दिया - "महामहिम वाइसराय जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप मुझे इस योग्य मानते हैं किंतु मैं वंश परंपरा से प्राप्त अपनी सनातन उपाधि नहीं त्यागना चाहता। एक ब्राह्मण के लिए 'पंडित' की उपाधि ही सर्वोपरि उपाधि है। यह मुझे ईश्वर ने प्रदान की है। मैं इसे त्याग कर उसके बंदे की दी गई उपाधि को क्यों कर स्वीकार करूँ?"

वाइसराय उनके तर्क से खुश होकर बोले - "आपका निर्णय सुनकर हमें आपको पांडित्य पर जो गर्व था, वह दुगुना हो गया। आप वाकई सच्चे पंडित हैं जो उसके गौरव गरिमा की रक्षा के लिए कोई भी प्रलोभन त्याग सकते हैं।"

एक बार काशी के पंडितों की एक सभा ने मालवीय जी महाराज का नागरिक अभिनंदन करके उन्हें उस समारोह के दौरान ही 'पंडितराज' की उपाधि प्रदान किए जाने का प्रस्ताव किया। यह सुनकर सभा के कार्यकर्ताओं के सुझाव का विरोध करते हुए वे बोले - "अरे पंडितों, पांडित्य का मखौल क्यों बना रहे हो, पंडित की उपाधि तो स्वत: ही विशेषणातीत है। इसलिए आप मुझको पंडित ही बना रहने दीजिए।"

फिर वे हँसकर बोले - "जानते हो 'पंडित' 'महापंडित' बन जाता है तो उसका एक पर्यायवाची वैशाखनंदन 'गधा' बनकर मुस्कराता है व्याकरणाचार्यों के पांडित्य पर।"

और पंडित जी के विनोद में बात आई गई हो गई। वे न तो डाक्टर बने, न 'सर' हुए न ही 'पंडितराज' इस सबसे दूर स्वाभिमान के साथ जीवन भर पांडित्य का गौरव बढ़ाते रहे।
समय की पाबंदी
- तरुण के. साहू
बात साबरमती आश्रम में गांधी जी के प्रवास के दिनों की है। एक दिन एक गाँव के कुछ लोग बापू के पास आए और उनसे कहने लगे, "बापू कल हमारे गाँव में एक सभा हो रही है, यदि आप समय निकाल कर जनता को देश की स्थिति व स्वाधीनता के प्रति कुछ शब्द कहें तो आपकी कृपा होगी।"

गांधी जी ने अपना कल का कार्यक्रम देखा और गाँव के लोगों के मुखिया से पूछा, "सभा के कार्यक्रम का समय कब है?"
मुखिया ने कहा, "हमने चार बजे निश्चित कर रखा है।"
गांधी जी ने आने की अपनी अनुमति दे दी।
मुखिया बोला, "बापू मैं गाड़ी से एक व्यक्ति को भेज दूँगा, जो आपको ले आएगा। आपको अधिक कष्ट नहीं होगा।
गांधी जी मुस्कराते हुए बोले, "अच्छी बात है, कल निश्चित समय मैं तैयार रहूँगा।"
अगले दिन जब पौने चार बजे तक मुखिया का आदमी नहीं पहुँचा तो गांधी जी चिंतित हो गए। उन्होंने सोचा अगर मैं समय से नहीं पहुँचा तो लोग क्या कहेंगे। उनका समय व्यर्थ नष्ट होगा।

गांधी जी ने एक तरीक़ा सोचा और उसी के अनुसार अमल किया। कुछ समय पश्चात मुखिया गांधी जी को लेने आश्रम पहुँचा तो गांधी जी को वहाँ नहीं पाकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। लेकिन वह क्या कर सकते थे। मुखिया सभा स्थल पर पहुँचा तो उन्हें यह देख कर और अधिक आश्चर्य हुआ कि गांधी जी भाषण दे रहे हैं और सभी लोग तन्मयता से उन्हें सुन रहे हैं।

भाषण के उपरांत मुखिया गांधी जी से मिला और उनसे पूछने लगा, "मैं आपको लेने आश्रम गया था लेकिन आप वहाँ नहीं मिले फिर आप यहाँ तक कैसे पहुँचे?"

गांधी जी ने कहा, "जब आप पौने चार बजे तक नहीं पहुँचे तो मुझे चिंता हुई कि मेरे कारण इतने लोगों का समय नष्ट हो सकता है इसलिए मैंने साइकिल उठाई और तेज़ी से चलाते हुए यहाँ पहुँचा।"

मुखिया बहुत शर्मिंदा हुआ। गांधी जी ने कहा, "समय बहुत मूल्यवान होता है। हमें प्रतिदिन समय का सदुपयोग करना चाहिए। किसी भी प्रगति में समय महत्वपूर्ण होता है।"
अब उस युवक की समझ में मर्म आ चुका था।
सहनशीलता

एक दरोगा संत दादू की ईश्वर भक्ति और सिद्धि से बहुत प्रभावित था। उन्हें गुरु मानने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा। लगभग आधा जंगल पार करने के बाद दरोगा को केवल धोती पहने एक साधारण-सा व्यक्ति दिखाई दिया। वह उसके पास जाकर बोला, "क्यों बे तुझे मालूम है कि संत दादू का आश्रम कहाँ है?"

वह व्यक्ति दरोगा की बात अनसुनी कर के अपना काम करता रहा। भला दरोगा को यह सब कैसे सहन होता? लोग तो उसके नाम से ही थर-थर काँपते थे उसने आव देखा न ताव लगा ग़रीब की धुनाई करने। इस पर भी जब वह व्यक्ति मौन धारण किए अपना काम करता ही रहा तो दरोगा ने आग बबूला होते हुए एक ठोकर मारी और आगे बढ़ गया।

थोड़ा आगे जाने पर दरोगा को एक और आदमी मिला। दरोगा ने उसे भी रोक कर पूछा, ''क्या तुम्हें मालूम है संत दादू कहाँ रहते है?''

''उन्हें भला कौन नहीं जानता, वे तो उधर ही रहते हैं जिधर से आप आ रहे हैं। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर उनका आश्रम है। मैं भी उनके दर्शन के लिए ही जा रहा था। आप मेरे साथ ही चलिए।'' वह व्यक्ति बोला।

दरोगा मन ही मन प्रसन्न होते हुए साथ चल दिया। राहगीर जिस व्यक्ति के पास दरोगा को ले गया उसे देख कर वह लज्जित हो उठा क्यों संत दादू वही व्यक्ति थे जिसको दरोगा ने मामूली आदमी समझ कर अपमानित किया था। वह दादू के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगा। बोला, ''महात्मन् मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे अनजाने में अपराध हो गया।''

दरोगा की बात सुनकर संत दादू हँसते हुए बोले, ''भाई, इसमें बुरा मानने की क्या बात? कोई मिट्टी का एक घड़ा भी ख़रीदता है तो ठोक बजा कर देख लेता है। फिर तुम तो मुझे गुरु बनाने आए थे।''

संत दादू की सहिष्णुता के आगे दरोगा नतमस्तक हो गया।
सही चुनाव
- सुधा
एक राजा को अपने दरबार के किसी उत्तरदायित्वपूर्ण पद के लिए योग्य और विश्वसनीय व्यक्ति की तलाश थी। उसने अपने आस-पास के युवकों को परखना
शुरू किया। लेकिन वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया। तभी एक महात्मा का पदार्पण हुआ, जो इसी तरह यदा-कदा अतिथि बनकर सम्मानित हुआ करते थे। युवा राजा ने वयोवृद्ध संन्यासी के सम्मुख अपने मन की बात प्रकट की -
"मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ। अनेक लोगों पर मैंने विचार किया। अब मेरी दृष्टि में दो हैं,  इन्हीं दोनों में से एक को रखना चाहता हूँ।"
"कौन हैं ये दोनों?"  "एक तो राज परिवार से ही संबंधित हैं, पर दूसरा बाहर का है। उसका पिता पहले हमारा सेवक हुआ करता था, उसका देहांत हो गया है। उसका यह बेटा
पढ़ा-लिखा सुयोग्य है।"  "और राज परिवार से संबंधित युवक? उसकी योग्यता 'मामूली' है।''  "आपका मन किसके पक्ष में है?"  "मेरे मन में द्वंद्व है, स्वामी!"  "किस बात को लेकर?"
"राज परिवार का रिश्तेदार कम योग्य होने पर भी अपना है, और. . ."    "राजन! रोग शरीर में उपजता है तो वह भी अपना ही होता है, पर उसका उपचार जंगलों और पहाड़ों पर उगने वाली जड़ी-बूटियों से किया जाता है। ये चीज़ें   अपनी नहीं होकर भी हितकर होती हैं।"    राजा की आँखों के आगे से धुंध छँट गई। उसने निरपेक्ष होकर सही आदमी को चुन लिया।
सुखी व्यक्ति की खोज
चाँदपुर इलाके के राजा कुँवरसिंह जी बड़े अमीर थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी, फिर भी उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। बीमारी के मारे वे सदा परेशान रहते थे। कई वैद्यों ने उनका इलाज किया, लेकिन उनको कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।

राजा की बीमारी बढ़ती गई। सारे नगर में यह बात फैल गई। तब एक बूढ़े ने राजा के पास आकर कहा, ''महाराज, आपकी बीमारी का इलाज करने की मुझे आज्ञा दीजिए।'' राजा से अनुमति पाकर वह बोला, ''आप किसी सुखी मनुष्य का कुरता पहनिए, अवश्य स्वस्थ हो जाएँगे।''

बूढ़े की बात सुनकर सभी दरबारी हँसने लगे, लेकिन राजा ने सोचा, ''इतने इलाज किए हैं तो एक और सही।'' राजा के सेवकों ने सुखी मनुष्य की बहुत खोज की, लेकिन उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य नहीं मिला। सभी लोगों को किसी न किसी बात का दुख था।

अब राजा स्वयं सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़े। बहुत तलाश के बाद वे एक खेत में जा पहुँचे। जेठ की धूर में एक किसान अपने काम में लगा हुआ था। राजा ने उससे पूछा, ''क्यों जी, तुम सुखी हो?'' किसान की आँखें चमक उठी, चेहरा मुस्करा उठा। वह बोला, ''ईश्वर की कृपा से मुझे कोई दुख नहीं है।'' यह सुनकर राजा का अंग-अंग मुस्करा उठा। उस किसान का कुरता माँगने के लिए ज्यों ही उन्होंने उसके शरीर की ओर देखा, उन्हें मालूम हुआ कि किसान सिर्फ़ धोती पहने हुए है और उसकी सारी देह पसीने से तर है।

राजा समझ गया कि श्रम करने के कारण ही यह किसान सच्चा सुखी है। उन्होंने आराम-चैन छोड़कर परिश्रम करने का संकल्प किया।
थोड़े ही दिनों में राजा की बीमारी दूर हो गई।


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