Friday 16 December 2011

Dharm Mat Or Sampraday

भारत में इस्लाम का प्रवेश /अरब /हज़रत मुहम्मद /मुहम्मद अन्तिम पैग़म्बर/ क़ुरान शरीफ़/ इस्लाम के सिद्धान्त /पुरानी कथाएँ
 अल्लाह, फ़रिश्ते, शैतान
    भेद
    इस्लाम के सम्प्रदाय
    सलाम
    यहूदी
    मुनाफ़िक
    काफ़िर
    शरीयत
    क़ायनात, कर्मफल, जन्नत, दोज़ख़
    कर्मकाण्ड
    मूर्तिपूजा खण्डन
    सदाचार
इस्लाम धर्म का प्रतीक
इस्लाम शब्द का अर्थ है – 'अल्लाह को समर्पण'। इस प्रकार मुसलमान वह है, जिसने अपने आपको अल्लाह को समर्पित कर दिया, अर्थात इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। यही बात उनके 'कलमे' में दोहराई जाती है - ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह अर्थात 'अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरा (दूसरी सत्ता) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर।' कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व मुसलमान यह क़लमा पढ़ते हैं। इस्लाम में अल्लाह को कुछ हद तक साकार माना गया है, जो इस दुनिया से काफ़ी दूर सातवें आसमान पर रहता है। वह अभाव (शून्य) में सिर्फ़ 'कुन' कहकर ही सृष्टि रचता है। उसकी रचनाओं में आग से बने फ़रिश्ते और मिट्टी से बने मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हैं। गुमराह फ़रिश्तों को 'शैतान' कहा जाता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य सिर्फ़ एक बार दुनिया में जन्म लेता है। मृत्यु के पश्चात पुनः वह ईश्वरीय निर्णय (क़यामत) के दिन जी उठता है और मनुष्य के रूप में किये गये अपने कर्मों के अनुसार ही 'जन्नत' (स्वर्ग) या 'नरक' पाता है।
'इस्लाम' को शुरूआत ही से सबका विरोध सहना पड़ा। उसने निर्भीकतापूर्वक जब दूसरों के मिथ्याविश्वासों का खण्डन किया, तो सभी ने भरसक इस्लाम को उखाड़ फैंकने का प्रयत्न किया। सचमुच जिस प्रकार का विरोध था, यदि उसी प्रकार की दृढ़ता मुसलमानों और उनके धर्मगुरु ने न दिखाई होती तो कौन कह सकता है कि इस्लाम इस प्रकार संसार के इतिहास को पलट देने में समर्थ होता।
भारत में इस्लाम का प्रवेश
712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में अरब के मुसलमानों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमला करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह बार हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।
अरब
अत्यंत प्राचीन काल में ‘जदीस’, ‘आद’, ‘समूद’ आदि जातियाँ, जिनका अब नाममात्र शेष है, अरब में निवास करती थीं, किन्तु भारत-सम्राट हर्षवर्द्धन के सम-सामयिक हज़रत मुहम्मद के समय ‘क़हतान’, ‘इस्माईल’ और ‘यहूदी’ वंश के लोग ही अरब में निवास करते थे। प्राचीन काल में अरब-निवासी सुसभ्य और शिल्प-कला में प्रवीण थे। परन्तु ‘नीचैर्गच्छत्युपरि च तथा चक्रनेमिक्रमेण’ के अनुसार कालान्तर में उनके वंशज घोर अविद्यान्धकार में निमग्न हो गये और सारी शिल्पकलाओं को भूल कर ऊँट-बकरी चराना मात्र उनकी जीविका का उपाय रह गया। वह इसके लिए एक स्रोत से दूसरे स्रोत, एक स्थान से दूसरे स्थान में हरे चरागाहों को खोजते हुए खेमों में निवास करके कालक्षेप करने लगे। कनखजूरा, गोह, गिरगिट आदि सारे जीव उनके भक्ष्य थे। प्रज्ज्वलित अग्नि में जीवित मनुष्य को डाल देना उनके समीप कोई असाधु कर्म नहीं समझा जाता था। हिन्दू-पुत्र अम्रु ने अपने भाई के मारे जाने पर एक के बदले सौ के मारने की प्रतिज्ञा की।
हज़रत मुहम्मद
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म 570 ई. को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप उनका पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने ख़दीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछडी, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जिबरील का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 16 जुलाई 622 को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किलोमीटर उत्तर की ओर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में 'हिजरत' कहलाती है। इसी दिन से 'हिजरी संवत' का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्तर में 630 ई. में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात 8 जून, 632 को उनका निधन हो गया।
तत्कालीन मूर्तियाँ
‘हुब्ल’, ‘लात्’, ‘मनात्’ ‘उज्ज’ आदि भिन्न-भिन्न अनेक देव-प्रतिमाएँ उस समय अरब के प्रत्येक कबील में लोगों की इष्ट थीं। बहुत पुराने समय में वहाँ मूर्तिपूजा न थी। ‘अमरू’ नामक काबा के एक प्रधान पुजारी ने ‘शाम’ देश में सुना कि इसकी आराधना से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसी ने पहले-पहल ‘शाम’ से लाकर कुछ मूर्तियाँ काबा के मन्दिर में स्थापित कीं। देखादेखी इसका प्रचार इतना बढ़ा कि सारा देश मूर्तिपूजा में निमग्न हो गया। अकेले ‘काबा’ मन्दिर में 360 देवमूर्तियाँ थीं, जिनमें हुब्ल-जो छत पर स्थापित था - कुरेश - वंशियों का इष्ट था। ‘जय[1] हुब्ल’ उनका जातीय घोष था। लोग मानते थे कि ये मूर्तियाँ ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसीलिए वे उन्हें पूजते थे। अरबी में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होते है; किन्तु ‘अलाह’ शब्द ‘इस्लाम’ काल से पहले उस समय भी एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।
श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ मूर्तिपूजा - विरोधी यहूदी धर्म के अनुयायी थे। उनके और अपनी यात्राओं में अनेक शिष्ट महात्माओं के सत्संग एवं लोगों के पाखण्ड ने उन्हें मूर्तिपूजा से विमुख बना दिया। वह ईसाई भिक्षुओं की भाँति बहुधा ‘हिरा’ की गुफा में एकान्त-सेवन और ईश्वर - प्रणिधान के लिए जाया करते थे। ‘इका बि-इस्मि रब्बिक’ (पढ़ अपने प्रभु के नाम के साथ) यह प्रथम क़ुरान वाक्य पहले वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर शरीर को देखकर क्षण भर के लिए वह मूर्च्छित हो गये थे। जब उन्होंने इस वृत्तान्त को श्रीमती ‘ख़दीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया तो उन्होंने कहा- अवश्य वह देवदूत था जो इस भगवत्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था। इस समय महात्मा मुहम्मद की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगम्बरी (भगवतता) का समय प्रास्म्भ होता है।
इस्लाम का प्रचार और कष्ट
यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है - परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं।
ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त कर उन्होंने मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया। मेला के ख़ास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में दूर से आयें हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की अपासना का खण्डन करके, वह एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान का उपदेश करते थे। ‘क़ुरैशी’ लोग अपने इष्ट, आचार और आमदनी की इस प्रकार निन्दा और उस पर इस प्रकार का कुठाराघात देखकर भी ‘हाशिम’- परिवार की चिरशत्रुता के भय से उन्हें मारने की हिम्मन न कर सकते थे। किन्तु इस नवीन धर्म-अनुयायी, दास-दासियों को तप्त बालू पर लिटाते, कोड़े मारते तथा बहुत कष्ट देते थे; तो भी धर्म के मतवाले प्राणपण से अपने धर्म को न छोड़ने के लिए तैयार थे। इस अमानुषिक असह्य अत्याचार को दिन पर दिन बढ़ते देख कर अन्त में महात्मा ने अनुयानियों को ‘अफ्रीका’ खण्ड के ‘हब्स’ नामक राज्य में- जहाँ का राजा बड़ा न्यायपरायण था- चले जाने की अनुमति दे दी। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, ‘क़ुरैशी’ का द्वेष भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता था; किन्तु ‘अबूतालिब’ के जीवन-पर्यन्त खुलकर उपद्रव करने की उनकी हिम्मत न होती थी। जब ‘अबूतालिब’ का देहान्त हो गया तो उन्होंने खुले तौर पर विरोध करने पर कमर बाँधी।
मदीना-प्रवास
अब महात्मा मुहम्मद की अवस्था 53 वर्ष की थी। उनकी स्त्री श्रीमती ‘खदीजा’ का देहान्त हो चुका था। एक दिन ‘क़ुरैशियों’ ने हत्या के अभिप्राय से उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, किन्तु महात्मा को इसका पता पहले से ही मिल चुका था। उन्होंने पूर्व ही वहाँ से ‘यस्रिब’ (मदीना) नगर को प्रस्थान कर दिया था। वहाँ के शिष्य-वर्ग ने अति श्रद्धा से गुरु सुश्रुषा करने की प्रार्थना की थी। पहुँचने पर उन्होंने महात्मा के भोजन, वासगृह आदि का प्रबन्ध कर दिया। जब से उनका निवास ‘यास्रिब’ में हुआ, तब से नगर का नाम ‘मदीतुन्नबी’ या नबी का नगर प्रख्यात हुआ। उसी को छोटा करके आजकल केवल ‘मदीना’ कहते हैं। ‘क़ुरान’ में तीस खण्ड हैं और वह 114 ‘सूरतों’ (अध्यायों) में भी विभक्त है।[2] निवास-क्रम से प्रत्येक सूरत ‘मक्की’ या ‘मद्नी’ नाम से पुकारी जाती है, अर्थात मक्का में उतरी ‘सूरतें’ ‘मक्की’ और मदीना में उतरी ‘मद्नी’ कही जाती है।
मुहम्मद अन्तिम पैग़म्बर
"जो कोई परमेश्वर और उसके प्रेरित की आज्ञा न माने, उसको सर्वदा के लिए नरक की अग्नि है।"[3] महात्मा मुहम्मद के आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। "तुम्हारे लिए प्रभु–प्रेरित का सुन्दर आचरण अनुकरणीय है।"  यह कह ही आए हैं कि अरब के लोग उस समय एकदम असभ्य थे। उन्हें छोटे–छोटे से लेकर बड़े–बड़े आचार और सभ्यता–सम्बन्धी व्यवहारों को भी बतलाना पड़ता था। उनको गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, बड़े-छोटे के सम्बन्ध का भी विशेष विचार नहीं था। महात्मा मुहम्मद को गुरु और प्रेरित स्वीकार करने पर उनका यही मुख्य सम्बन्ध मुसलमानों के साथ है, न कि भाईबन्दी, चचा-भतीजा वाला पहला सम्बन्ध; यथा- "मुहम्मद तुम पुरुषों में से किसी का बाप नहीं, वह प्रभु-प्रेरित और सब प्रेरितों पर मुहर (अन्तिम) है।" 'मुसलमानों का उस (मुहम्मद) के साथ प्राण से भी अधिक सम्बन्ध है और उसकी स्त्रियाँ तुम्हारी (मुसलमानों) की माताएँ हैं।'
क़ुरान शरीफ़
इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका हिन्दी में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।
लौह महफूज में क़ुरान
क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है। अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्त्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है- “हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है।“
जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित मुहम्मद के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने धर्म की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है- यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।[9]
इस्लाम के सिद्धान्त
अरबी के 'मज़हब' और 'दीन' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हैं, उसे अंग्रेज़ी का रिलीजन शब्द तो अवश्य व्यक्त कर सकता है। किन्तु संस्कृत या हिन्दी में उनका पर्यायवाची कोई एक शब्द नहीं मिलता। यद्यपि 'पन्थ' शब्द ठीक 'मज़हब' शब्द के ही धात्वर्थ को प्रकाशित करता है। किन्तु जिस प्रकार 'धर्म' शब्द अतिव्याप्त है, उसी प्रकार यह अव्याप्ति–दोषग्रस्त है। इस निबन्ध के वर्णनानुसार जो मार्ग मनुष्य के ऐहिक और आयुष्मिक श्रेय की प्राप्ति के लिए अनुसरण करने के योग्य है, वही इस्लाम पन्थ, धर्म या सम्प्रदाय है। आसानी के लिए हम प्रायः 'पन्थ' शब्द ही को इसके लिए प्रयुक्त करेंगे। हर एक पन्थ में दो प्रकार के मन्तव्य होते हैं। एक विश्वासात्मक, दूसरा क्रियात्मक। नीचे दोनों प्रकार के इस्लामी मन्तव्यों को क़ुरान के शब्दों ही में उदधृत किया जाता है— "यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है—परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं।"
पुरानी कथाएँ
"यह (वह) बस्तियाँ हैं, जिनका वृत्तान्त तुझे (हम) सुनाते हैं।" "सो तू (मुहम्मद) कथा वर्णन कर, शायद यह विचार करे।" क़ुरान का एक विशेष भाग शिक्षाप्रद इतिवृत्तों और कथाओं से पूर्ण है। उपर्युक्त वाक्य इसके साक्षी हैं। क़ुरान में वर्णित सभी विषयों का सामान्य ज्ञान इस क़ुरानसार की रचना से अभिप्रेत है। अतः यहाँ पर उन कथाओं का थोड़ा–सा वर्णन कर दिया जाता है। इनमें से अनेक कथाएँ कुछ घटा - बढ़ा कर वहीं हैं जो बाइबिल में आई हैं। इन महात्माओं के बारे में है-

    महात्मा आदम
    महात्मा नूह
    महात्मा इब्राहीम
    महात्मा लूत
    महात्मा यूसुफ़
    महात्मा मूसा
    महात्मा दाऊद

अल्लाह, फ़रिश्ते, शैतान
दुनिया के सारे धर्म प्रायः सारे पदार्थों को दो श्रेणियों में विभक्त करते हैं, अर्थात जड़ और चेतन। चेतन के भी दो भेद हैं - ईश्वर, जीव। जीवों में ही फ़रिश्ते शैतान भी हैं।
अल्लाह
ईश्वर को ‘क़ुरान’ ने सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता माना है, जैसा कि उसके निम्न उद्धरणों से मालूम होगा -
“वह (ईश्वर) जिसने भूमि में जो कुछ है (सबको) तुम्हारे लिए बनाया।“
 “उसने सचमुच भूमि और आकाश बनाया। मनुष्य का क्षुद्र वीर्य – बिन्दु से बनाया। उसने पशु बनाए, जिनसे गर्म वस्त्र पाते तथा और भी अनेक प्रकार के लाभ उठाते हो, एवं उन्हें खाते हो।“
    “वह तुम्हारा ईश्वर चीज़ों का बनाने वाला है। उसके सिवाय कोई भी पूज्य नहीं है।“[15]
    “ईश्वर सब चीज़ों का सृष्टा तथा अधिकारी है।“[16]
    “निस्सन्देह ईश्वर भूमि और आकाश को धारण किए हुए है कि वह नष्ट न हो जाए।“[17]
    “जो परमेश्वर मारता और जिलाता है।“[18]
    ईश्वर बड़ा ही दयालु है, वह अपराधों को क्षमा कर देता है -
 “निस्सन्देह तेरा ईश्वर मनुष्यों के लिए उनके अपराधों का क्षमा करने वाला है।“[19]
आस्तिकों पर ही नहीं, फ़रिश्तों पर भी—
“इस बात में (हे मुहम्मद !) तेरा कुछ नहीं, चाह वह (ईश्वर) उन (क़फ़िरों) को क्षमा करे या उन पर विपद डाले, यदि वह अत्याचारी है।“[20]
ईश्वर सत्य है -
“परमेश्वर सत्य है।“
ईश्वर का न्यायकारी होना इस प्रकार से कहा गया है -
“क़यामत के दिन हम ठीक तौलेंगे, किसी जीव पर कुछ भी अन्याय नहीं किया जाएगा। चाहे वह एक सरसों के बराबर ही क्यों न हो, किन्तु हमारे पास में पूरा हिसाब रहेगा।“[22]
निम्न वाक्य के अनेक ईश्वरीय गुण बतलाए गए हैं -
“परमेश्वर जिसके सिवाय कोई भी ईश्वर नहीं है - जीवन और सत् है। उसे नींद या औंघ नहीं आती। जो कुछ भी भूमि और प्रकाश में है, वह उसी के लिए ही है। जो कि उसकी आज्ञा के बिना उसके पास सिफ़ारिश करे? वह जानता है, जो कुछ उनके आगे या पीछ है, वह कोई बात उससे छिपा नहीं सकते, सिवाय इसके कि जिसे वह चाहे विशाल भूमि और प्रकाश की कुर्सी, जिसकी रक्षा उसे नहीं थकाती वह उत्तम और महान है।“
 परमेश्वर माता - पिता - स्त्री - पुत्रादि रहित है -
 “न वह किसी से पैदा हुआ है, न उससे कोई पैदा है।“[24]
ईश्वर में मार्ग में खर्च करने का वर्णन इस प्रकार है -
“कौन है जो कि ईश्वर को अच्छा कर्ज़ दे, वह उसे कई गुना बढ़ाएगा।“[25]
“निस्सन्देह दाता स्त्री–पुरुषों ने परमेश्वर को अच्छा कर्ज़ दिया है, उनका वह दुगुना होगा, और उनके लिए (इसका) अच्छा बदला है।“[26]
फ़रिश्ता
जिस प्रकार पुराणों में परमेश्वर के बाद अनेक देवता भिन्न–भिन्न काम करने वाले माने जाते हैं, यमराज मृत्यु के अध्यक्ष, इन्द्र वृष्टि के अध्यक्ष इत्यादि, इसी प्रकार ‘इस्लाम’ ने फ़रिश्तों’ को माना है। पहले फ़रिश्तों के सम्बन्ध में क़ुरान में आए कुछ वाक्य देने पर इस पर विचार करना अच्छा होगा, इसलिए यहाँ वे वाक्य उदधृत किए जाते हैं- “जब हमें (परमेश्वर) ने फ़रिश्तों को (आदम के लिए) दण्डवत करने को कहा, तो सबने दण्डवत की, किन्तु इब्लीस ने इन्कार कर दिया, घमण्ड किया और (वह) नास्तिकों में से था।“[27] “जब हमने फ़रिश्तों को दण्डवत करने का कहा, तो इब्लीस के अतिरिक्त सभी ने किया। (इब्लीस) बोला - क्या मैं उसे दण्डवत करूँ जो मिट्टी से बना है।“[28] “जब हमने फ़रिश्तों को कहा - आदम को दण्डवत करो तो (उन्होंने) दण्डवत की, किन्तु इब्लीस, जो कि जिन्नों में से था - ने न किया।“[29]
ऊपर के वाक्यों में फ़रिश्तों का वर्णन आया है। भगवान ने आदम (मनुष्य के आदि पिता) को बनाकर उन्हें आदम को दण्डवत करने को कहा। सबने वैसा किया, किन्तु इब्लीस ने न किया। यह इब्लीस उस समय फ़रिश्तों में सबसे ऊपर (देवेन्द्र) था। तृतीय वाक्य में जो उसे ‘जिन्न’ कहा गया है, उससे ज्ञात होता है कि फ़रिश्ते और जिन्न एक ही हैं या जिन्न फ़रिश्तों के अंतर्गत ही कोई जाति है। इब्लीस ने यह कह कर आदम को दण्डवत करने से इन्कार किया कि वह मिट्टी से बना है। अतः मालूम पड़ता है कि उत्पत्ति किसी और अच्छे पदार्थ से हुई है। अन्यत्र इब्लीस के वाक्य ही से मालूम हो जाता है कि उनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है। अपने भक्तों की रक्षा के लिए ईश्वर इन फ़रिश्तों को भेजते हैं।
शैतान
फ़रिश्तों के अतिरिक्त क़ुरान में एक प्रकार और भी अदृष्ट प्राणी कहे गए हैं, जो सब जगह आने–जाने में फ़रिश्तों के समान ही हैं; किन्तु वह शुभकर्म से हटाने और अशुभ कराने के लिए मनुष्यों को प्रेरणा देते रहते हैं। इन्हें शैतान कहते हैं। उनके लिए पापात्मा शब्द आता है। शैतानों में सबका सरदार वही इब्लीस है। शैतान के विषय में कहा गया है- यह केवल शैतान है, जो तुम्हें अपने दोस्तों से डराता है।[30] शैतान किस प्रकार मनुष्यों को अशुभ कर्म की ओर प्रेरित करता है, उसको इस वाक्य में कहा गया है- “शैतान उनके कर्मों को सँवार देता है तथा कहता है - अब कोई भी मनुष्य तुम्हें जीत नहीं सकता, मैं तुम्हारा रक्षक हूँ, किन्तु जब दोनों पक्ष आमने–सामने आते हैं, तो वह मुँह मोड़ लेता है और कहता है - मैं तुमसे अलग हूँ, मैं निस्सन्देह देखता हूँ, जिसे तुम नहीं देखते, और परमेश्वर पाप का कठोर नाशक है।“[31]
भेद
इस्लाम धर्म के पाँच भेद किये जाते हैं-
(i) नित्य वे आधारभूत हैं, जिन्हें हर रोज़ करना चाहिए। इस्लाम में निम्न पाँच कर्तव्यों को हर मुसलमान के लिए अनिवार्य बताया गया है-

    प्रतिदिन पाँच वक़्त (फ़जर, जुहर, असर, मगरिब, इशा) नमाज़ पढ़ना
    ज़रूरतमंदों को ज़कात (दान) देना
    रमज़ान के महीने में सूर्योदय के पहले से लेकर सूर्यास्त तक रोज़ा रखना
    जीवन में कम से कम एक बार हज अर्थात मक्का स्थित काबा की यात्रा करना तथा
    इस्लाम की रक्षा के लिए ज़िहाद (धर्मयुद्ध) करना।
(ii) नैमित्तिक कर्म वे कर्म हैं, जिन्हें करने पर पुण्य होता है, परन्तु न करने से पाप नहीं होता।
(iii) काम्य वे कर्म हैं जो किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं।
(iv) असम्मत वे कर्म हैं जिनकों करने की धर्म सम्मति तो नहीं देता, किन्तु करने पर कर्ता को दण्डनीय भी नहीं ठहराता।
(v) निषिद्ध (हराम) कर्म वे हैं, जिन्हें करने की धर्म मनाही करता है और इसके कर्ता को दण्डनीय ठहराता है।
इस्लाम के सम्प्रदाय
इस्लाम में दो मुख्य सम्प्रदाय- शिया और सुन्नी मिलते हैं। मुहम्मद साहब की पुत्री फ़ातिमा और दामाद अली के बेटों हसन और हुसैन को पैगम्बर का उत्तराधिकारी मानने वाले मुसलमान 'शिया' कहलाते हैं। दूसरी ओर सुन्नी सम्प्रदाय ऐसा मानने से इन्कार करता है।
सलाम
मिलने जुलने आने जाने में सलाम का रिवाज़ है। सलाम करने वाला "अस्स्लामु अलैक़मु" कहता है जिसका अर्थ है तुम पर ख़ुदा की तरफ़ से सलामती हो, इसका जवाब है। "व अलेकुम अस्सलाम" अर्थात तुम पर सलामती हो।

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